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के 'सन्मति' की एक गाथा उद्धृत को है। उस पर से आजकल यह माना जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर ही गन्धहस्ती हैं। परन्तु उपाध्याय यशोविजयजी का यह उल्लेख भ्रान्तिपूर्ण है। इसके दो प्रमाण इस समय स्पष्ट है । एक तो यह कि उ० यशोविजयजी से पूर्व के किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन ग्रन्थकार ने सिद्धसेन दिवाकर के साथ या निश्चित रूप से उनकी मानी जानेवाली कृतियों के साथ या उन कृतियों से उद्धृत अवतरणों के साथ एक भी स्थल पर गन्धहस्ती विशेषण का उपयोग नहीं किया है। सिद्धसेन दिवाकर की कृति के अवतरण के साथ 'गन्धहस्ती' विशेषण का प्रयोग करनेवाले केवल यशोविजयजी ही है, अत: उनका यह कथन किसी भी प्राचीन आधार से रहित है। इसके अतिरिक्त सिद्धसेन दिवाकर के जीवन-वृत्तान्तवाले जितने प्राचीन या अर्वाचीन प्रबन्ध मिलते हैं उनमें कही भी 'गन्धहस्ती' पद व्यवहृत दृष्टिगोचर नहीं होता, जब कि दिवाकर पद प्राचीन प्रबन्धों तक में और दूसरे आचार्यों के ग्रन्थों में भी प्रयुक्त मिलता है। दूसरा प्रबल और अकाटय प्रमाण यह है कि उपाध्याय यशोविजयजी से पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थों में जो गन्धहस्ती के अवतरण मिलते हैं वे सभी अवतरण कहीं
१ भद्रेश्वरकृत कथावलीगत सिद्धसेनप्रबन्ध, अन्य लिखित सिद्धसेनप्रबन्ध, प्रभावकचरित्रगत वृद्धवादिप्रबन्धांतर्गत सिद्धसेनप्रबन्ध, प्रबन्धचितामणिगत विक्रमप्रबन्ध और चतुर्विशतिप्रबन्ध ।
सिद्धसेन के जीवन-प्रबन्धो मे जैसे दिवाकर उपनाम आता है और उसका समर्थन मिलता है वैसे गन्धहस्ती के विषय में कुछ भी नही है। यदि गन्धहस्ती पद का इतना प्राचीन प्रयोग मिलता है तो यह प्रश्न होता ही है कि प्राचीन ग्रंथकारों ने दिवाकर पद को तरह गन्धहस्ती पद सिद्धसेन के नाम के साथ या उनकी किसी निश्चित कृति के साथ प्रयुक्त क्यों नही किया ?
२. देखें-हरिभद्रकृत पंचवस्तु, गाथा १०४८ ।
३. तुलना के लिए देखे -
"निद्रादयो यतः समधिगताया एव । “आह च गन्धहस्ती-निद्रादयः दर्शनलब्धे उपयोगघाते प्रवर्तन्ते चक्षु- समधिगताया एव दर्शनलब्धरुपघाते दर्शनावरणादिचतुष्टयं तूद्गमोच्छेदित्वात् । वर्तन्ते दर्शनावरणचतुष्टयन्तूगमोच्छेदिमूलघातं निहन्ति दर्शनलब्धिम् इति ।" । त्वात् समूलघात हन्ति दर्शनलब्धिमिति।"
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