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भाषा ( हिन्दी ) में टीकाएँ भी लिखी हैं, तब तो उपर्युक्त प्रश्न और भी बलवान् बन जाता है । मूलाचार तथा भगवती आराधना जैसे ग्रन्थों को श्रुत में स्थान देनेवाली दिगम्बर परम्परा दशवैकालिक और उत्तराध्ययन को क्यों नहीं मानती ? अथवा दशवैकालिक आदि को छोड़ देनेवाली दिगम्बर परम्परा मूलाचार आदि को कैसे मान सकती है ? इस असगतिसूचक प्रश्न का उत्तर सरल भी है और कठिन भी । ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो सरल है और केवल पन्थ दृष्टि से विचार करें तो कठिन है ।
इतिहास से अनभिज्ञ लोग बहुधा यही सोचते हैं कि अचेल या दिगम्बर परम्परा एकमात्र नग्नत्व को ही मुनित्व का अंग मानती है या मान सकती है । नग्नत्व के अतिरिक्त थोड़े भी उपकरण धारण करने को दिगम्बरत्व में कोई स्थान नहीं । जब से दिगम्बर परंपरा में तेरापन्थ को भावना ने जोर पकड़ा और दूसरे दिगम्बर अवान्तर पक्ष या तो नामशेष हो गए या तेरापन्थ के प्रभाव में दब गए तब से तो पन्थदृष्टिवालों का उपर्युक्त विचार और भी पुष्ट हो गया कि मुनित्व का अंग तो एकमात्र नग्नत्व है - थोड़ी भी उपधि उसका अंग नहीं हो सकती और नग्नत्व की असंभावना के कारण न स्त्री ही मुनि-धर्म की अधिकारिणी बन सकती है । ऐसी पन्थ दृष्टि के लोग उपर्युक्त असंगति का सच्चा समाधान प्राप्त ही नही कर सकते । उनके लिए यही मार्ग रह ता है कि या तो वे कह दें कि वैसे उपधिप्रतिपादक सभी ग्रन्थ श्वेताम्बर हैं या श्वेताम्बर प्रभाववाले किन्ही विद्वानों के हैं या उन्हें पूर्ण दिगम्बर मुनित्व का प्रतिपादन अभिप्रेत नही है । ऐसा कहकर भी वे अनेक उलझनों से मुक्त नहीं हो सकते । अतएव उनके लिए प्रश्न का सच्चा उत्तर कठिन है ।
परन्तु जैन-परम्परा के इतिहास के अनेक पहलुओं का अध्ययन तथा विचार करनेवाले के सामने वैसी कोई कठिनाई नहीं । जैन - परम्परा के इतिहास से स्पष्ट है कि अचेल या दिगम्बर पक्ष में भी अनेक सघ या गच्छ ऐसे हुए हैं जो मुनिधर्म के अगरूप में उपधि का आत्यन्तिक त्याग मानने न मानने के विषय में पूर्णतया एकमत नहीं थे । कुछ सघ ऐसे भी थे जो नग्नत्व और पाणिपात्रत्व का पक्ष लेते हुए भी व्यवहार में थोड़ी-बहुत उपधि अवश्य स्वीकार करते थे । वे एक प्रकार से मृदु या मध्यममार्गी अचेल दलवाले थे । कोई संघ या कुछ सघ ऐसे भी थे जो मात्र नग्नत्व का समर्थन करते थे और व्यवहार में भी उसी का अनुसरण करते थे । वे
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