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परम्परा में हुए थे और उन्होंने शिथिल या मध्यम त्याग मार्ग में अपने उत्कट त्यागमार्गमय व्यक्तित्व द्वारा नवजीवन का संचार किया था । में विरोध और उदासीनभाव रखनेवाले अनेक पार्श्वसन्तानिक साधु व शुरू श्रावक भी भगवान् महावीर के शासन में मिल गए। भगवान् महावीर ने अपनी नायकत्वोचित उदार किन्तु तात्त्विक दृष्टि से अपने शासन में उन दोनों दलों का स्थान निश्चित किया जिनमें से एक बिलकुल नग्नजीवीं तथा उत्कट विहारी था और दूसरा मध्यममार्गी था जो बिलकुल नग्न नहीं था । दोनो दलों का बिलकुल नग्न रहने या न रहने के विषय में तथा अन्य आचारों में थोड़ा-बहुत अन्तर रहा, फिर भी वह भगवान् के व्यक्तित्व के कारण विरोध का रूप धारण नही कर पाया । उत्कट और मध्यम त्यागमार्ग के इस प्राचीन समन्वय मे ही वर्तमान दिगम्बर श्वेताम्बर भेद की जड़ है ।
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उस प्राचीन समय में जैन परम्परा में दिगम्बर श्वेताम्बर जैसे शब्द नहीं थे, फिर भी आचारभेद के सूचक नग्न, अचेल ( उत्त० २३. १३, २९ ), जिनकल्पिक, पाणिप्रतिग्रह ( कल्पसूत्र, ९. २८ ), पाणिपात्र आदि शब्द उत्कट त्यागवाले दल के लिए तथा सचेल, प्रतिग्रहधारी ( कल्पसूत्र, ९.३१ ), स्थविरकल्प ( कल्पसूत्र, ९. ६३ ) आदि शब्द मध्यमत्यागवाले दल के लिए मिलते हैं ।
१. आचारांग, सूत्र १७८ ।
२. कालासवेसियपुत्त ( भगवती, १९ ), केशी ( उत्तराध्ययन, अध्ययन २३ ), उदकपेढालपुत्त ( सूत्रकृताङ्ग, २. ७ ), गांगेय ( भगवती, ९. ३२ ) इत्यादि । विशेष के लिए देखें - 'उत्थान' का महावीरांक, पृ० ५८ । कुछ पावपत्यों ने तो पंचमहाव्रत और प्रतिक्रमण के साथ नग्नत्व भी स्वीकार किया था, ऐसा उल्लेख आज तक अंगों मे सुरक्षित है । उदाहरणार्थ देखें- भगवती,
१. ९ ।
३. आचारांग में सचेल और अचेल दोनों प्रकार के मुनियों का वर्णन है । अचेल मुनि के वर्णन के लिए प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन के १८३ से आगे के सूत्र और सचेल मुनि के वस्त्रविषयक आचार के लिए द्वितीय श्रुतस्कन्ध का ५वाँ अध्ययन द्रष्टव्य है । सचेल तथा अचेल दोनों मुनि मोह को कैसे जीतें, इसके रोचक वर्णन के लिए देखें – आचारांग, १८।
४. देखें --- उत्तराध्ययन, अ० २३ ।
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