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- १७ - पड़ता। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता ने ही यदि 'सर्वार्थसिद्धि'. 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' आदि कोई व्याख्या लिखी होती तो उनमें अर्थ की खींचतान, शब्द की तोड़-मरोड़, अध्याहार, अर्थ का संदेह और पाठभेद' कभी न दिखाई देते। यह वस्तु-स्थिति निश्चित रूप से एक-कर्तृक मूल तथा टीका-ग्रन्थों को देखने से समझ में आ सकती है। यह चर्चा हमें मूल तथा भाष्य का कर्ता एक होने की मान्यता की निश्चित भूमिका पर लाकर छोड़ देती है ।
मूल ग्रन्थकार और भाष्यकार एक ही हैं, यह निश्चय इस प्रश्न के हल करने में बहुत उपयोगी है कि वे किस परम्परा के थे। उमास्वाति दिगम्बर परम्परा के नही थे, ऐसा निश्चय करने के लिए नीचे की युक्तियाँ काफी हैं :
१. प्रशस्ति में उल्लिखित उच्चनागर शाखा या नागरशाखा का दिगम्बर सम्प्रदाय में होने का एक भी प्रमाण नहीं मिलता।
२. 'काल' किसी के मत से वास्तविक द्रव्य है, ऐसा सूत्र (५. ३८) और उसके भाष्य का वर्णन दिगम्बर मत (५. ३९) के विरुद्ध है। केवली में (९.११) ग्यारह परीषह होने की सूत्र और भाष्यगत सीधी मान्यता एव भाष्यगत वस्त्र-पात्रादि का स्पष्ट उल्लेख भी दिगम्बर परम्परा के विरुद्ध है (९ ५,९. ७, ९. २६) । सिद्धों में लिंगद्वार और तीर्थद्वार का भाष्यगत वक्तव्य दिगम्बर परम्परा के विपरीत है।
३. भाष्य में केवलज्ञान के पश्चात् केवली के दूसरा उपयोग मानने न मानने का जो मन्तव्य-भेद (१.३१ ) है वह दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं दिखाई देता।
उपर्युक्त युक्तियों से यद्यपि यह सिद्ध होता है कि वाचक उमास्वाति दिगम्बर परम्परा के नहीं थे तथापि यह देखना तो रह ही जाता है कि वे किस परम्परा के थे। निम्न युक्तियां उन्हें श्वेताम्बर परम्परा की ओर ले जाती हैं : ____१. प्रशस्ति में उल्लिखित उच्चनागर शाखा श्वेताम्बर पट्टावली में मिलती है।
१. उदाहरणार्थ देखे -"चरमदेहा इति वा पाठ."-सर्वार्थसिद्धि, २. ५३ । "अथवा एकादश जिने न सन्तीति वाक्यशेषः कल्पनीयः सोपस्कारत्वात् सूत्राणाम्"-सर्वार्थसिद्धि, ९. ११ ।
२. देखें-प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० ४ तथा ६-७ ।
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