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२. भाष्यगत अन्तिम कारिकाओं में से आठवी कारिका को याकिनीसूनु हरिभद्राचार्यं ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में उमास्वातिकर्तृक रूप में उद्धृत किया है ।
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३. भाष्य की प्रारम्भिक अंगभूत कारिका के व्याख्यान में आ० देवगुप्त भी सूत्र और भाष्य को एक- कर्तृक सूचित करते हैं ( देखें — का० १-२ ) ।
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४. प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानों पर भाष्य में भी वक्ष्यामि, वक्ष्यामः आदि प्रथम पुरुष का निर्देश है और इस निर्देश में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार ही बाद में सूत्र में कथन किया गया है ।
५ भाष्य को प्रारम्भ से अन्त तक देख जाने पर एक बात जँचती है कि कही सूत्र का अर्थ करने में शब्दों की खींचतान नहीं हुई, कहीं सूत्र का अर्थ करने में सन्देह या विकल्प नहीं किया गया, न सूत्र की किसी दूसरी व्याख्या को मन में रखकर सूत्र का अर्थ किया गया और न कहीं सूत्र के पाठभेद का ही अवलम्बन लिया गया है ।
यह वस्तु-स्थिति सूत्र और भाष्य के एक कर्तृक होने की चिरकालीन मान्यता को सत्य सिद्ध करती है । जहाँ मूल ग्रन्थकार और टीकाकार अलगअलग होते हैं वहाँ तत्त्वज्ञान विषयक प्रतिष्ठित तथा अनेक सम्प्रदायों में मान्य ग्रन्थों में ऊपर जैसी वस्तु-स्थिति नहीं होती । उदाहरणार्थ वैदिक दर्शन में प्रतिष्ठित ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' को लीजिए । यदि इसका रचयिता स्वयं ही व्याख्याकार होता तो इसके भाष्य में शब्दों की खींचतान, अर्थ के विकल्प और अर्थ का सदेह तथा सूत्र का पाठभेद कदापि न दिखाई
१. तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थं संग्रहं लघुग्रन्थम् ।
वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥
न च मोक्षमार्गाद् व्रतोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥ ३१ ॥
२. गुणान् लक्षणतो वक्ष्यामः । - ५. ३७ का भाव्य, अगला सूत्र ५. ४० । अनादिरादिमांश्च तं परस्ताद्वक्ष्यामः । - ५. २२ का भाष्य, अगला सूत्र ५. ४२ ।
३. अगस्त्यसिह ने दशवैकालिकचूर्णि मे उमास्वाति का नाम देकर सूत्र और भाष्य का उद्धरण दिया है- पृ० ८५ । नयचक्र मूल मे भाष्य उद्धृत है- पृ० ५९६ ।
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