________________
- २० -
२. इन दो दलों में आचार-विषयक भेद होते हुए भी भगवान् के शासन के मुख्य प्राणरूप श्रुत में कोई भेद नही था, दानों दल बारह अग के रूप में मान्य तत्कालीन श्रुत को समान रूप से मानते थे। आचारविषयक कुछ भेद और श्रुतविषयक पूर्ण अभेद की यह स्थिति तरतमभाव से महावीर के बाद लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक रही। इस बीच में भी दोनों दलो के अनेक योग्य आचार्यों ने उसी अंग-श्रुत के आधार पर छोटे-बड़े ग्रन्थों की रचना की थी जिनको सामान्यरूप से दोनो दलों के अनुगामी तथा विशेषरूप से उस-उस ग्रन्थ के रचयिता के शिष्यगण मानते थे और अपने-अपने गुरु-प्रगुरु की कृति समझकर उस पर विशेष जोर देते थे । वे ही ग्रन्थ अंगबाह्य, अनंग या उपांग रूप मे व्यवहृत हुए।' दानों दलों की श्रुत के विषय मे इतनी अधिक निष्ठा व प्रामाणिकता रही कि जिससे अंग और अंगबाह्य का प्रामाण्य समान रूप से मानने पर भी किसी ने अंग और अनंग-श्रुत की भेदक रेखा को गौण नही किया जो कि दोनों दलों के वर्तमान साहित्य में आज भी स्थिर है।
एक ओर अचेल-सचेल आदि आचार का पूर्वकालीन मतभेद जो पारस्परिक सहिष्णुता तथा समन्वय के कारण दबा हुआ था, धीरे-धीरे तीव्र होता गया और दूसरी ओर उसी आचारविषयक मतभेद का समर्थन दोनों दलवाले मुख्यतया अंग-श्रुत के आधार पर करने लगे और साथ ही अपने-अपने दल के द्वारा रचित विशेष अंगबाह्य श्रुत का उपयोग भी उसके समर्थन में करने लगे। इस प्रकार मुख्यतया आचारभेद में से जो दलभेद स्थिर हुआ उसके कारण सारे शासन में अनेक गड़बड़ियां पैदा हुई। फलस्वरूप पाटलिपुत्र की वाचना ( वी० नि० १६० के लगभग) हुई।२ इस वाचना तक और इसके आगे भी ऐसा अभिन्न अग-श्रुत रहा जिसे दोनों दल समान रूप से मानते थे, पर कहते जाते थे कि उस मूलश्रुत का क्रमशः ह्रास होता जा रहा है। साथ ही वे अपने-अपने अभिमत-आचार के पोषक ग्रन्थों का भी निर्माण करते रहे । इसी आचारभेद-पोषक श्रुत के द्वारा अन्ततः उस प्राचीन अभिन्न अंग-श्रुत में मतभेद का जन्म हुआ, जो आरम्भ में अर्थ करने में था पर
१. दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, आवश्यक, ऋषिभाषित आदि।
२. परिशिष्टपर्व, सर्ग ९ श्लोक ५५ तथा आगे, वीरनिर्वाणसंवत् और जैनकालगणना, पृ० ९४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org