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- १८ - २. अमुक विषय-सम्बन्धी मतभेद या विरोध बतलाते हए भी कोई ऐसे प्राचीन या अर्वाचीन श्वेताम्बर आचार्य नहीं हैं जिन्होंने दिगम्बर आचार्यों की भाँति भाष्य को अमान्य कहा हो।
३. जिसे उमास्वाति की कृति मानने में सन्देह का अवकाश नहीं उस प्रशमरति ग्रन्थ में मुनि के वस्त्र-पात्र का व्यवस्थित निरूपण है, जिसे श्वेताम्बर परम्परा निर्विवाद रूप से स्वीकार करती है।
४. उमास्वाति के वाचकवंश का उल्लेख और उसी वंश में होनेवाले अन्य आचार्यों का वर्णन श्वेताम्बर पट्टावलियों, पन्नवणा और नन्दी की स्थविरावली में मिलता है।
ये युक्तियाँ वाचक उमास्वाति को श्वेताम्बर परम्परा का सिद्ध करती हैं और समस्त श्वेताम्बर आचार्य पहले से उन्हे अपनी ही परम्परा का मानते आए हैं। वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा में हुए और दिगम्बर परम्परा में नही, ऐसा स्वयं मेरा मन्तव्य भी अधिक अध्ययनचिन्तन के बाद स्थिर हुआ है। इस मन्तव्य की विशेष स्पष्टता के लिए दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद विषयक इतिहास के कुछ प्रश्नों पर प्रकाश डालना जरूरी है। पहला प्रश्न यह है कि इस समय दिगम्बर-श्वेताम्बर के भेद या विरोध का विषय जो श्रुत तथा आचार है उसकी प्राचीन जड़ कहाँ तक मिलती है और वह मुख्यतया किस बात में थी ? दूसरा प्रश्न यह है कि उक्त दोनों सम्प्रदायों को समान रूप से मान्य श्रुत था या नही, और था तो वह समान मान्यता का विषय कब तक रहा, उसमें मतभेद कब से प्रविष्ट हुआ तथा उस मतभेद के अन्तिम परिणामस्वरूप एक-दूसरे के लिए परस्पर पूर्णरूपेण अमान्य श्रुतभेद कब पैदा हुआ ? तीसरा और अन्तिम प्रश्न यह है कि उमास्वाति स्वयं किस परम्परा के आचार का पालन करते थे और उन्होंने जिस श्रुत को आधार मानकर तत्त्वार्थ की रचना की वह श्रत उक्त दोनों सम्प्रदायों को समान रूप से पूर्णतया मान्य था या किसी एक सम्प्रदाय को ही पूर्णरूपेण मान्य था और दूसरे को पूर्णरूपेण अमान्य था ?
१. जो भी ऐतिहासिक सामग्री इस समय प्राप्त है उससे निर्विवादरूपेण इतना स्पष्ट ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर पापित्य
१. देखे-का० १३५ और आगे।
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