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मिलता है।' तत्त्वार्थ १.१२ के भाष्य में अर्थापत्ति, सभव और अभाव आदि प्रमाणों के भेद का निरसन न्यायदर्शन (२.१.१.) आदि के जैसा ही है। न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष के लक्षण में इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्नम् ( १. १. ४ ) ये शब्द हैं। तत्त्वार्थ १.१२ के भाष्य में अर्थापत्ति आदि भिन्न माने गए प्रमाणों को मति और श्रुतज्ञान में समाविष्ट करते हए इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया गया है। यथा सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्त तानि इन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमित्तत्वात् ।
इसी प्रकार पतंजलि-महाभाष्य और न्यायदर्शन ( १. १. १५) आदि में 'पर्याय' शब्द के स्थान पर 'अनर्थान्तर' शब्द के प्रयोग की पद्धति तत्त्वार्थसूत्र ( १. १३ ) में भी है।
(घ ) बौद्ध-दर्शन की शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि शाखाओं के विशिष्ट मंतव्यों अथवा शब्दों का उल्लेख जैसा सर्वार्थसिद्धि में है, वैसा तत्त्वार्थभाष्य में नही है, तो भी बौद्धदर्शन के थोड़े से सामान्य मन्तव्य तंत्रान्तर के मन्तव्यों के रूप में दो-एक स्थल पर आते हैं। वे मन्तव्य पालिपिटक से लिए गए हैं या महायान के संस्कृत पिटकों से अथवा तद्विषयक किसी दूसरे ही ग्रन्थ से, यह विचारणीय है। उनमें पहला उल्लेख जैनमत के अनुसार नरकभूमियों की सख्या बतलाते हुए बौद्धसम्मत संख्या का खंडन करने के लिए आ गया है। वह इस प्रकार है-अपि च तन्त्रान्तरीया असंख्येषु लोकधातुष्वसंख्येयाः पथिवीप्रस्तारा इत्यध्यवसिताः। -तत्त्वार्थभाष्य, ३ १ ।
दुसरा उल्लेख जैनमत के अनुसार पुद्गल का लक्षण बतलाते हुए बौद्धसम्मत पुद्गल शब्द के अर्थ का निराकरण करते हुए आया है । यथा पुद्गला इति च तंत्रान्तरीयाँ जीवान् परिभाषन्ते-अ० ५ सू०२३ का उत्थानभाष्य !
१. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि । -न्यायदर्शन, १. १.३ । चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण-तत्त्वार्थभाष्य, १. ६. और यथा वा प्रत्यक्षानु मानोपमानाप्तवचनैः प्रमारगरेकोऽर्थः प्रमीयते । -तत्त्वार्थभाष्य, १. ३५ ।
२ देखे-१ १ ५६; २ ३.१. और ५. १. ५९ का महाभाष्य ।
३. यद्यपि जैन आगम ( भगवती श ८, उ. ३ और श २०, उ. २) मे 'पुद्गल' शब्द जीव अर्थ मे भी प्रयुक्त हुआ है, किन्तु जैन-दर्शन की परिभाषा तो
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