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( ख ) उमास्वाति की योग्यता
उमास्वाति के पूर्ववर्ती जैनाचार्यो ने संस्कृत भाषा में लिखने की शक्ति का यदि विकास न किया होता और लिखने का प्रघात शुरू न किया होता तो प्राकृत परिभाषा मे रूढ साम्प्रदायिक विचारों को उमास्वाति इतनी प्रसन्न संस्कृत शैली मे सफलतापूर्वक निबद्ध कर सकते अथवा नहीं, यह एक प्रश्न ही है, तो भी उपलब्ध समग्र जैन वाङ्मय का इतिहास तो यही कहता है कि जैनाचार्यो में उमास्वाति ही प्रथम सस्कृत लेखक है। उनके ग्रन्थों की प्रसन्न, संक्षिप्त और शुद्ध शैली संस्कृत भाषा पर उनके प्रभुत्व की साक्षी है । जैन आगम में प्रसिद्ध ज्ञान, ज्ञेय, आचार, भूगोल, खगोल आदि से सम्बद्ध बातों का सक्षेप में जो सग्रह उन्होंने तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र मे किया है वह उनके 'वाचक' वंश में होने का और वाचक - पद की यथार्थता का प्रमाण है । उनके तत्त्वार्थ-भाष्य की प्रारंभिक कारिकाओं तथा दूसरी पद्यकृतियो से स्पष्ट है कि वे गद्य की तरह पद्य क भी प्रांजल लेखक थे । उनके सभाष्य सूत्रो के सूक्ष्म अवलोकन से जैन आगम सबंधी उनके सर्वग्राही अध्ययन के अतिरिक वैशेषिक, न्याय, योग और बौद्ध आदि दार्शनिक साहित्य के अध्ययन की प्रतीति होती है । तत्त्वार्थभाष्य ( १.५ २.१५ ) में उद्धृत व्याकरण के सूत्र उनके पाणिनीय व्याकरण-विषयक अध्ययन के परिचायक हैं ।
यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इनकी प्रसिद्धि पाँच सौ ग्रंथों के रचयिता के रूप में है और इस समय इनकी कृतिरूप में कुछ ग्रन्थ प्रसिद्ध भी हैं, तथापि इस विषय में आज संतोषजनक कुछ भी कहने की स्थिति नहीं है । ऐसी स्थिति में भी 'प्रशमरति की भाषा और विचारसरणी
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मात्र जड़ परमाणु और तन्निर्मित स्कंध के रूप मे ही प्रसिद्ध है । बौद्ध दर्शन की परिभाषा जीव अर्थ मे ही प्रसिद्ध है । इसी भेद को लक्ष्य मे रखकर वाचक ने यहाँ 'तन्त्रान्तरीय' शब्द का प्रयोग किया है ।
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१. जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, पूजाप्रकरण, श्रावकप्रज्ञप्ति, क्षेत्रविचार, प्रशमरति । सिद्धसेन अपनी वृत्ति मे ( पृ० ७८, पं० २ ) उनके 'शौचप्रकरण' नामक ग्रंथ का उल्लेख करते हैं, जो इस समय उपलब्ध नही है ।
२. वृत्तिकार सिद्धसेन 'प्रशमरति' को भाष्यकार की ही कृति बतलाते है । यथा - 'यतः प्रशमरतौ ( का० २०८ ) अनेनैवोक्तम् -- परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजनीय. ।' 'वाचकेन त्वेतदेव बलसंज्ञया प्रशमरतौ (का० ८० ) उपात्तम्' - ५.६ तथा ९.६ की भाष्यवृत्ति ।
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