Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रावरणविचार!
नुभवनानुषङ्गात् । तस्य प्रधानसंसर्गाभावान्न तत्फलानुभवनमिति चेत् ; तहि संसारिणः प्रधानसंसर्गाद्वन्धफलानुभवनम् । तथा चात्मन एव बन्धः सिद्धः, तत्संसर्गस्य बन्धफलानुभवननिमित्तस्य बन्धरूपत्वात्, बन्धस्यैव 'संसर्गः' इति पुद्गलस्य च 'प्रधानम्' इति नामान्तरकरणात् ।
ननु प्रसिद्धस्यापि यथोक्तप्रकारस्य कर्मणः कार्यकारणप्रधाहेण प्रवर्त्तमानस्यानादित्वाद्विनाशहेतुभूतसामग्री विशेषस्य चाभावात्कथं तेन विश्लेषिताखिलावरणत्वं ज्ञानस्य ; इत्यप्यपेशनम् ; सम्यग्दर्शनादित्रयलक्षणस्य तद्विनाशहेतुभूतसामग्री विशेषस्य सुप्रतीतत्वात् । सञ्चितं हि कर्म निर्जरातश्चारित्रविशेषरूपायाः प्रलीयते । सा च निर्जरा द्विविधा-उपक्रमेतरभेदात् । तत्रौपक्रमिकी तपसा द्वादशविधेन साध्या । अनुपक्रमा तु यथाकालं संसारिणः स्यात् ।
सांख्यः-प्रात्मा चेतन है अतः वह फलानुभव कर सकता है, प्रधान भोक्ता कैसे बने ? वह तो जड है ?
जैन:- यह बात भी गलत है, इस तरह से तो मुक्तात्मा के भी भोक्तृत्व का प्रसंग आयेगा ?
सांख्य:-मुक्तात्मा में प्रधान का संसर्ग नहीं रहता अतः फलानुभव नहीं करता ?
जैन:-ऐसी बात है तो संसारी जीवों के प्रधान का संसर्ग होता है और बंध के फल का अनुभव भी वे करते हैं यह निश्चय हुआ ? फिर आत्मा के बंधन सिद्ध होता है, प्रधान का संसर्ग बंध तथा फलानुभव का निमित्त होता है, ऐसा कहने से तो बंधन को सिद्धि होती है, आपने सिर्फ उस बंध का “संसर्ग" यह नाम धर दिया है और पुद्गल का प्रधान नाम धरा है, और कुछ मित्रता की बात नहीं है ।
इति कर्मणां पौद्गलिकत्त्वं सिद्धम्
कर्म नामा पदार्थ पौद्गलिक है वह सिद्ध होने पर कोई शंका करता है किकर्म भले हो पौद्गलिक हो किन्तु वे कार्य कारण भाव से अनादि काल से ही प्रवाहित हो रहे हैं, उनका नाश होना असंभव है, अतः द्रव्यादि सामग्री विशेष से ज्ञान का कर्मरूप प्रावरण नष्ट होता है ऐसा कहना प्रसिद्ध है ?
समाधान:-यह कथन असुन्दर है कर्मों के नष्ट करने का हेतु सम्यग्दर्शन,
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