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प्रमेयकमलमार्तण्डे
ल्लिगिप्रतिपत्तिरतिप्रसंगात्; तहि बृक्षशब्दात्स्थानाद्यर्थप्रतिपत्तिर्भवन्ती शाब्दी मा भूत्तत एव, अस्य स्वार्थप्रतिपत्तावेव पर्यवसितत्वाल्लिगशब्दवत् ।
किंच, विशेष्यपदं विशेष्यं विशेषणसामान्येनान्वितम्, विशेषण विशेषेण वाऽभिधत्ते, तदुभयेन वा? प्रथमपक्षे विशिष्टवाक्यार्थप्रतिपत्तिविरोधः । द्वितीयपक्षे तु निश्चयासम्भवः - प्रतिनियतविशेषणस्य शब्देनानिदिष्टस्य स्वोक्तविशेष्येऽन्वयसंशोतेः, विशेषणान्तराणामपि सम्भवात् । वक्तुरभिप्रायात्प्रतिनियतविशेषणस्य तत्रान्वयश्चेत्; न; यं प्रति शब्दोच्चारणं तस्य वक्त्रभिप्रायाऽप्रत्यक्षतस्तदनिर्णयप्रसंगात्, प्रात्मानमेव प्रति वक्तुः शब्दोच्चारणानर्थक्यात् । तृतीयपक्षे तु उभयदोषानुषंगः।
शाब्दिक नहीं मानना चाहिये, वृक्ष शब्द तो अपने अर्थ की प्रतीति में ही सीमित है जैसे हेतु शब्द अपने अर्थ प्रतीति में सीमित है।
दूसरी बात यह है कि विशेष्य पद विशेष्य को विशेषण सामान्य से अन्वित कहता है या विशेषण विशिष्ट से अन्वित विशेष्य को कहता है अथवा उभय से अन्वित विशेष्य को कहता है ? प्रथम पक्ष माने तो विशिष्ट वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति होने में विरोध आता है । दूसरा पक्ष माने तो निश्चय नहीं हो सकता, अर्थात् शब्द से जिसका निर्देश नहीं किया है ऐसे प्रतिनियत विशेषण का अपने उक्त विशेष्य में अन्वय करने में संशय उत्पन्न होगा, क्योंकि विशेष्य में अन्य अन्य विशेषणों का होना भी संभव है, अतः अपने इस विशेष्य में अमुक विशेषण ही अन्वित है ऐसा निश्चय नहीं हो सकता।
शंका-वक्ता के अभिप्राय से प्रतिनियत विशेषण का उस विशेष्य में अन्वय हो जाता है ?
समाधान-नहीं हो सकता, जिस पुरुष के प्रति शब्द का उच्चारण किया जाता है उस पुरुष को वक्ता का अभिप्राय अप्रत्यक्ष रहता है (ज्ञात नहीं रहता) अतः उस विशेषण का निर्णय होना असंभव ही है। यदि कहा जाय कि वक्ता को अपने प्रति ही अभिप्राय प्रत्यक्ष रहता है अर्थात् वक्ता स्वयं तो अपने अभिप्राय को जानता है उससे वह नियत विशेषण का निश्चय कर लेगा? सो ऐसा कहे तो शब्द का उच्चारण ही व्यर्थ ठहरता है, कोई स्वयं के लिये तो शब्दोच्चारण करता नहीं। तीसरे पक्ष में (विशेष्य पद विशेष्य को सामान्य और विशेष रूप उभय विशेषण से अन्वित कहता है) तो उभयपक्ष के दोष आते हैं ( विशिष्ट वाक्यार्थ की प्रतीति नहीं होना और निश्चय नहीं होना )
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