Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 660
________________ अन्विताभिधानवादः ६१५ एतेन क्रियासामान्येन क्रियाविशेषेण तदुभयेन वान्वितस्य साधनस्य, साधनसामान्येन साधनविशेषेण तदुभयेन वान्वितायाः प्रतिपादनमाख्यातेन प्रत्याख्यातम् । यदि च पदात्पदार्थे उत्पन्नं ज्ञानं वाक्यार्थाध्यवसायि स्यात्; तर्हि चक्षुरादिप्रभवं रूपादिज्ञानं गन्धाध्यवसायि किन्न स्यात् ? अथास्य गन्धादिसाक्षात्कारित्वाभावान्नायं दोषः; तहि पदोत्थपदार्थज्ञानस्यापि वाक्यार्थावभासित्वाभावात्कथं तदध्यवसायित्वं स्यात् ? चक्षुरादेर्गन्धादाविव पदस्य वाक्यार्थसम्बन्धानवधारणतः सामर्थ्यानुपपत्तेः। तन्नान्विताभिधानं श्रेयः । इसी प्रकार वाक्य में जो पद कर्म कारकादि साधन रूप होता है वह क्रिया सामान्य से अन्वित अर्थ को कहता है कि क्रिया विशेषण से अथवा उभय रूप से अन्वित अर्थ को कहता है ऐसे प्रश्न होते हैं और उन सब पक्ष में वही दूषण पाने से उनका निराकरण भी पूर्वोक्त रीत्या हो जाता है। ऐसे ही क्रिया पद साधन सामान्य से अन्वित अर्थ को कहता है या साधन विशेष से अथवा उभय से अन्वित अर्थ को कहता है इस प्रकार तीनों पक्षों की मान्यता सदोष होने से खंडित होती है। तथा यदि पद से पद के अर्थ में ज्ञान उत्पन्न होता है और वह वाक्यार्थ का निश्चय करता है तो चक्षु आदि से उत्पन्न हुप्रा रूपादि ज्ञान गंध का निश्चय क्यों नहीं कर सकता ? प्राशय यह है कि 'देवदत्तः' आदि कोई एक पद देवदत्त संज्ञा वाले मनुष्य का ज्ञान कराता है और साथ ही अन्य 'तिष्ठति' पद का ज्ञान भी (बिना शब्दोच्चारण के ही) कराता है, ऐसा माना जाय तो नेत्र से उत्पन्न हुआ नील ज्ञान गुलाब की सुगंधी को जानता है ऐसा विरुद्ध कथन भी मानना होगा। शंका-रूपादि ज्ञान गंधादि का साक्षात्कारी नहीं होने से उसका निश्चायक नहीं होता अतः विरुद्ध मान्यता का दोष नहीं आता। समाधान-तो फिर पद से उत्पन्न हुआ पद के अर्थ का ज्ञान भी वाक्यार्थ का साक्षात्कारी नहीं होने से उसका निश्चायक किस प्रकार हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। क्योंकि जिसप्रकार चक्षु आदि की गंधादि विषय में सामर्थ्य नहीं होती उसी प्रकार पद की वाक्यार्थ संबंध का अनवधारण होने से उसमें सामर्थ्य नहीं होती अर्थात् पद से वाक्य के अर्थ का ज्ञान नहीं होता। अतः अन्वित अभिधानवाद अर्थात् पदों से पदान्तरों के अर्थों से अन्वित अर्थों का ही कथन होता है इसलिये पदके अर्थ के प्रतीति से वाक्य के अर्थ की प्रतीति होती है ऐसा प्रभाकर का मत श्रेयस्कर नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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