Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

Previous | Next

Page 692
________________ भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय ६४७ भेद हुए हैं जो "अग्निष्टोमेन यजेत्” इत्यादि वेद वाक्य का अर्थ भावना परक करते हैं। उन्हें भाट्ट कहते हैं, जो नियोग रूप करते हैं वे प्रभाकर और जो विधि रूप अर्थ करते हैं वे वेदान्ती कहलाते हैं। मीमांसक वेद को अपौरुषेय मानते हैं। जबकि ईश्वर का मानने वाले नैयायिकादि दार्शनिक वेद को ईश्वर कृत रवीकार करते हैं। मीमांसक चूकि ईश्वर सत्ता को नहीं मानते अतः सृष्टि को अनादि निधन मानते हैं। इस जगत का न कोई कर्ता है और न कोई हर्ता है। शब्द को नित्य तथा सर्वव्यापक मानते हैं क्योंकि वह नित्य व्यापक ऐसे आकाश का गुण है। शब्द की अभिव्यक्ति तालु आदि के द्वारा होती है न कि उत्पत्ति, जिस प्रकार दीपक घट पट आदि का मात्र प्रकाशक (अभिव्यंजक ) है। उसी प्रकार तालु आदि का व्यापार मात्र शब्द को प्रगट करता है, न कि उत्पन्न करता है। तत्त्व संख्या-मीमांसक के दो भेदों में से भाट्ट के यहां पदार्थ या तत्त्वों की संख्या ५ मानी है-द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य और अभाव । प्रभाकर आठ पदार्थ मानता है द्रव्य, गुरण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या । द्रव्य नामा पदार्थ भाट्ट के यहां ग्यारह प्रकार का है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, आत्मा, मन, तम और शब्द । इसमें से तम को छोड़ कर १० भेद प्रभाकर स्वीकार करता है। प्रमाण संख्या-भाट्टको प्रमाण संख्या छः है प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, आगम और अभाव । प्रभाकर प्रभाव को छोड़कर पाँच प्रमाण स्वीकार करता है। प्रामाण्यवाद-सभी मीमांसक प्रमाणों में प्रामाण्य सर्वथा स्वतः ही रहता है ऐसा मानते हैं। अप्रामाण्य मात्र पर से ही पाता है। मीमांसक सर्वज्ञ को न मान कर सिर्फ धर्मज्ञ को मानते हैं अर्थात् वेद के द्वारा धर्म-अधर्म आदि का ज्ञान हो सकता है किन्तु इनका साक्षात् प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। मुक्ति के विषय में भी मोमांसक इतना ही प्रतिपादन करते हैं कि वेद के द्वारा धर्म आदि का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। किन्तु अात्मा में सर्वथा रागादि दोषों का अभाव होना अशक्य है तथा पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान होना भी अशक्य है। कोई-कोई मीमांसक दोषों का अभाव अात्मा में स्वीकार करके भी सर्वज्ञता को नहीं मानते हैं, इनके वेद या मीमांसाश्लोकवातिक आदि ग्रन्थों में स्वर्ग का मार्ग ही विशेष रूपेण वणित है । यज्ञ, पूजा, जप, भक्ति आदि स्वर्ग सुख के लिये ही प्रतिपादित हैं "अग्निष्टोंमेन यजेत स्वर्गकामः" इत्यादि वाक्य इसी बात को पुष्ट करते हैं। इनका अन्तिम ध्येय स्वर्ग प्राप्ति तक सीमित है, अस्तु । इस प्रकार वेद को माननेवाले प्रमुख दर्शन नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसक हैं, इनके आवांतर भेद और भी हैं जैसे वेदांती शब्दाद्वैतवादी, शांकरीय, भास्करीय इत्यादि, इन सबमें वेद प्रामाण्यको मुख्यता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 690 691 692 693 694 695 696 697 698