________________
शुद्धि पत्र
६५१
पंक्ति १३
३२१ ३३० ३३३ ३३४ ३४६ ३५३ ३६८ ३७२ ३७५ ३८७ ३९८
२४
४००
४००
०
अशुद्ध
शुद्ध तीन रूप
तीन रूपोंसे दुपयुक्तफलवत्
दुपभुक्तफलवत् प्राध्यक्षागमयोः
अध्यक्षागमयोः वैकल्प
वैकल्य प्रागमक
अगमक अन्यथा
अथवा पतिपत्तव्यं
प्रतिपत्तव्यं प्रमाण धर्मीके
प्रमाण सिद्ध धर्मीक साध्य विनाभावी
साध्याविनाभावी बाध्यसन्निकर्षादि
सन्निकर्षादि पहले ज्ञान
पहलेका ज्ञान परिणामीति
परिणामी परिणामी
परिणामीति भरणिस्तत एव ।।६।। भररिणः प्राक् तत एव ।।६।। भरणिस्तत एव ॥६६॥ भरणिः प्राक् तत एव ।।६।। अपौरुषेय प्रथया
अपौरुषेय है अथवा पतिपत्ति
प्रतिपत्ति उसका सामान्यका
उस सामान्यका सवितंकोप्येकेन
सवितैकोप्येकेन उद्धवृत्ति
ऊर्ध्ववृत्ति खंगे
खड्गे वृद्धि
बुद्धि नहीं होता ऐसा
नहीं होता तो कफांश के विषय में
भी ऐसा तस्यात्मभूपः
तस्यात्मभूतः हमेशा उक्त
उक्त क्योंकि ज्ञापक अर्थात् प्रतीतिका क्योंकि ज्ञापकके निश्चयकी अपेक्षा हेतु नहीं हो सकता जो निश्चय होती है। रूप हो।
०
20
४५६
४८७ ४८८
१६
४६१
४६२ ५१३ ५३०
११ १६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org