Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 664
________________ अभिहितान्वयवादः ६१६ वाक्यलक्षणविचार का सारांश वाक्य का लक्षण क्या है इस विषय में विभिन्न मतों में विवाद है, जैसा कि कहा है आख्यात शब्दः संघातो जातिः संघातवत्तिनी । एकोऽनवयवः शब्दः क्रमो बुद्धयनुसंहृती ॥१॥ पदमाद्य पदं चान्त्यं पदं सापेक्ष मित्यपि । वाक्यं प्रति मतिभिन्ना बहुधा न्यायवेदिनाम् ।।२।। अर्थ-भवति आदि धातु के शब्दों को वाक्य कहना चाहिए ऐसा कोई परवादी कहते हैं, कोई वर्गों के समूह को, कोई वर्ण समूह के जाति को (वर्णत्व को) एक निरंश शब्द को, कोई वर्णों के क्रम को, कोई बुद्धि को, कोई अनुसंहृती अर्थात् पद रूपता को प्राप्त हुए वर्गों के परामर्श को, कोई आदि पद को अन्तिम पद की अपेक्षा होना और अन्तिम पद को आदि पद की अपेक्षा होने को वाक्य कहते हैं। प्रभाकर अन्वित अभिधान को वाक्य कहते हैं, अर्थात् एक एक पद के अर्थ के प्रतिपादन पूर्वक वाक्य का अर्थ होता है, अतः वाक्यार्थ का अवबोध करते हुए पद ही वाक्य संज्ञा को प्राप्त होते हैं ऐसा इनका मंतव्य है । भाट्ट अभिहित अन्वय को वाक्य कहते हैं, अर्थात् पदों के द्वारा कहे हुए अर्थों का अन्वय होना वाक्य कहलाता है । जैनाचार्य ने इन विविध वाक्य लक्षणों में अब्याप्ति ग्रादि दूषण को बतलाते हुए समालोचना की है और वाक्य एवं पद के निर्दोष लक्षण का प्रणयन किया है, "वर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदम्" । "पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्ष: समुदायो वाक्यम्" । परस्परसापेक्ष और अन्य से निरपेक्ष ऐसे वर्गों के समुदाय को पद कहते हैं, तथा परस्पर सापेक्ष और अन्य से निरपेक्ष ऐसे पदों के समुदाय को वाक्य कहते हैं, घट: एक पद है इसमें दो वर्ण हैं ये दोनों तो परस्पर सापेक्ष हैं किन्तु इन दो को छोड़कर अन्य वर्ण की अपेक्षा नहीं है । "देवदत्त ! गां अभ्याज" इस वाक्य में देवदत्त, गां, अभ्याज ये तीन पद हैं ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं किन्तु अन्य पदों से निरपेक्ष हैं इनका समुदाय वाक्य संज्ञा को प्राप्त होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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