Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 674
________________ विशिष्ट शब्दावली (अ) अर्थकारणवाद - ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है ऐसा नैयायिक तथा बौद्ध मानते हैं इसको प्रर्थ कारणवाद कहते हैं । अशेषार्थं गोचरत्व—पारमार्थ प्रत्यक्ष प्रमाण अशेष (संपूर्ण) पदार्थों को विषय करता है, इसको शेषार्थ गोचरत्व कहते हैं । अन्यादृश - अन्य तरह का । श्रकिंचिज्ञ - - किंचित न जानकर शेष को जानने वाले सर्वज्ञ को अकिंचिज्ञ कहते हैं । वेदज्ञ - वेद को नहीं जानने वाला । अव्युत्पन्न — अजानकार, अनुमानादि के विषय में अज्ञानी । ग्रहष्ट - भाग्य, नहीं देखा हुआ पदार्थ, वैशेषिक आदि पुण्य पाप को प्रदृष्ट कहते हैं एवं उसको आत्मा का गुण मानते हैं । प्रकृष्टप्रभव- बिना बोये उगने धान्य तृण आदि । श्रन्वय - व्यतिरेक - साध्य के होने पर साधना का होना अन्वय है, साध्य के अभाव में साधन का नहीं होना व्यतिरेक है । प्रविद्धकरण - नहीं छेदा गया है क जिसका उस व्यक्ति को अविद्धक कहते हैं । योग मत के एक ग्रन्थकार का नाम अविद्ध कर्ण है । अपवर्ग - मोक्ष | अहंकार - गर्व को अहंकार कहते हैं । सांख्य का कहना है कि प्रधानतत्त्व से महान् (बुद्धि) और महान् से अहंकार आविर्भूत होता है । अंडज - अंडे से उत्पन्न होने वाले पक्षी को अंडज कहते हैं । अनेकांत—–अनेके अंताः धर्माः यस्मिन् स अनेकांत: जिसमें अनेक धर्म ( स्वभाव या गुण ) पाये जाते हैं उसको अनेकांत कहते हैं । जैन प्रत्येक पदार्थ को अनेक धर्म रूप मानते हैं अतः इस मत को अनेकांत मत भी कहते हैं । अनेकांत नाम का एक हेतु का दोष भी माना है, अथवा जो कथन व्यभिचरित होता है उसे भी अनेकांत कहते हैं । अभ्युदय -- इस लोक सम्बन्धी तथा देवगति सम्बन्धी सुख एवं वैभव को श्रभ्युदय कहते हैं । श्रक्रमानेकांत - गुणों को अक्रम अनेकांत कहते हैं । द्रव्य गुणों की प्रक्रम अर्थात् युगपत्वृत्ति होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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