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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
कालात्ययापदिष्ट- प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित हेतु को कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास कहते हैं । कुमारिल - मीमांसक मत के ग्रंथकार |
कर्क - सफेद घोड़ा ।
कारककाररण-कार्य को करने वाले कारण को कारककारण कहते हैं ।
(ख) खपुष्प - आकाश का फूल ( नहीं होता )
ख- श्राकाश, तथा लोपको ख कहते हैं । खरविषाण- गधे के सींग ( नहीं होते )
(ग) ग्राहय ग्राहक - ग्रहण करने योग्य तथा ग्रहण करने वाला ।
गृहीतग्राही - जानी हुई वस्तु को जानने वाले ज्ञान को गृहीतग्राही कहते हैं ।
गमक हेतु - साध्य को सिद्ध करने वाला हेतु ।
गोत्रस्खलन - मुख से कुछ अन्य कहना चाहते हुए भी कुछ अन्य नामादिका उच्चारण हो जाना गोत्रस्खलन कहलाता है ।
गम्यमान - ज्ञात हो रहा अर्थ ।
(च) चर्यामार्ग - जैन साधु आहारार्थ निकलते हैं उस विधि को चर्यामार्ग कहते हैं । चैतन्य प्रभव प्राणादि - चैतन्य के निमित्त से होने वाले श्वासादिप्राण ।
चित्रज्ञान — अनेक प्रकार जिसमें प्रतीत हो रहे उस ज्ञान को चित्रज्ञान कहते हैं । चोदना-मीमांसक वेद को चोदना भी कहते हैं । चोदना का अर्थ प्रश्न तथा प्रेरणा भी
होता है ।
(छ) छिन्नमूल - जिसका मूल छिन्न हुआ हो उसे छित्रमूल ́ कहते हैं वेद को प्रमाण मानने वाले मीमांसक आदि का कहना है कि वेद कर्त्ता का छिन्नमूल है अर्थात् उसका मूल में ( शुरु में ) ही कोई कर्त्ता नहीं है ।
(ज) जाति - न्यायग्रंथ में सामान्य को या सामान्यधर्म को जाति कहते हैं । जन्य का नाम भी जाति है, तथा माता पक्ष की संतान परम्परा को जाति कहते हैं ।
जैमिनि - मीमांसक मत के मान्य ग्रंथकार |
जन्य-जनक—उत्पन्न करने योग्य पदार्थ को जन्य और उत्पन्न करने वाले को जनक कहते हैं ।
(त) तादात्विक - उसकाल का, तत्काल का ।
त्रिदश - देव |
त्रैरुप्यवाद - बौद्ध हेतु के तीन अंग या गुण मानते हैं - पक्षधर्म, सपक्षसत्व और विपक्ष व्यावृत्ति, इसी को रुप्यवाद कहते हैं ।
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