Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 677
________________ ६३२ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे कालात्ययापदिष्ट- प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित हेतु को कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास कहते हैं । कुमारिल - मीमांसक मत के ग्रंथकार | कर्क - सफेद घोड़ा । कारककाररण-कार्य को करने वाले कारण को कारककारण कहते हैं । (ख) खपुष्प - आकाश का फूल ( नहीं होता ) ख- श्राकाश, तथा लोपको ख कहते हैं । खरविषाण- गधे के सींग ( नहीं होते ) (ग) ग्राहय ग्राहक - ग्रहण करने योग्य तथा ग्रहण करने वाला । गृहीतग्राही - जानी हुई वस्तु को जानने वाले ज्ञान को गृहीतग्राही कहते हैं । गमक हेतु - साध्य को सिद्ध करने वाला हेतु । गोत्रस्खलन - मुख से कुछ अन्य कहना चाहते हुए भी कुछ अन्य नामादिका उच्चारण हो जाना गोत्रस्खलन कहलाता है । गम्यमान - ज्ञात हो रहा अर्थ । (च) चर्यामार्ग - जैन साधु आहारार्थ निकलते हैं उस विधि को चर्यामार्ग कहते हैं । चैतन्य प्रभव प्राणादि - चैतन्य के निमित्त से होने वाले श्वासादिप्राण । चित्रज्ञान — अनेक प्रकार जिसमें प्रतीत हो रहे उस ज्ञान को चित्रज्ञान कहते हैं । चोदना-मीमांसक वेद को चोदना भी कहते हैं । चोदना का अर्थ प्रश्न तथा प्रेरणा भी होता है । (छ) छिन्नमूल - जिसका मूल छिन्न हुआ हो उसे छित्रमूल ́ कहते हैं वेद को प्रमाण मानने वाले मीमांसक आदि का कहना है कि वेद कर्त्ता का छिन्नमूल है अर्थात् उसका मूल में ( शुरु में ) ही कोई कर्त्ता नहीं है । (ज) जाति - न्यायग्रंथ में सामान्य को या सामान्यधर्म को जाति कहते हैं । जन्य का नाम भी जाति है, तथा माता पक्ष की संतान परम्परा को जाति कहते हैं । जैमिनि - मीमांसक मत के मान्य ग्रंथकार | जन्य-जनक—उत्पन्न करने योग्य पदार्थ को जन्य और उत्पन्न करने वाले को जनक कहते हैं । (त) तादात्विक - उसकाल का, तत्काल का । त्रिदश - देव | त्रैरुप्यवाद - बौद्ध हेतु के तीन अंग या गुण मानते हैं - पक्षधर्म, सपक्षसत्व और विपक्ष व्यावृत्ति, इसी को रुप्यवाद कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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