Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 675
________________ ६३० प्रमेयकमलमार्तण्डे अप्रेतप्रतिबन्धकत्व-प्रतिबन्धक से ( रुकावट ) रहित होना। अविचारक ज्ञान - विचार रहित निर्विकल्प ज्ञान । अनुमान-“साधनात् साध्य विज्ञानमनुमानम्" साधन ( हेतु ) से होने वाले साध्य के ज्ञान को ___ अनुमान कहते हैं। अबाधित विषयत्व-अनुमान में स्थित हेतु बाधा रहित पक्ष वाला या साध्य वाला होना अबाधित विषयत्व है। असत् प्रतिपक्षत्व-तुल्य बलवाला अन्य हेतु जिसके पक्ष को बाधित नहीं करता उस हेतु को असत् प्रतिपक्षत्व गुण वाला हेतु कहते हैं । अन्तर्व्याप्ति-हेतु का केवल पक्ष में ही व्याप्त रहना अन्तर्व्याप्ति कहलाती है। अरिष्ट-शकुन को अरिष्ट कहते हैं तथा अपशकुन को भी अरिष्ट कहते हैं । अस्मर्यमारण कर्तृत्व-कर्ता का स्मरण नहीं होना अस्मर्यमाण कर्तृत्व कहलाता है। अश्रुतकाव्य-जिस काव्य को सुना न हो। अपोहवाद-गो प्रादि संपूर्ण शब्द अर्थ के वाचक न होकर केवल अन्य के निषेधक हैं ऐसी बौद्ध की मान्यता है। अन्यापोह-अन्य का अपोह अर्थात् व्यावर्त्तन या निषेध । अकृतसमयध्वनि-जिसमें संकेत नहीं किया है ऐसी ध्वनि को अकृतसमयध्वनि कहते हैं । अन्विताभिधानवाद–वाक्य में स्थित पद सर्वथा वाक्यार्थ से अन्वित (सम्बद्ध) ही रहते हैं ऐसा प्रभाकर का ( मीमांसक का एक भेद ) मत है । अभिहितान्वयवाद-वाक्य में स्थित प्रत्येक पद वाक्य के अर्थ को कहता है ऐसा भाट्ट मानता है। अभिधीयमान-कहने में पा रहा अर्थ या शब्द अभिधीयमान कहलाता है । अधर्म-पाप को अधर्म कहते हैं । कुसंस्कार को या पापवर्द्धक क्रिया को भी अधर्म कहते हैं। अनन्वय-हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति नहीं होना। अनुविद्ध–सम्बद्ध या व्याप्त को अनुविद्ध कहते हैं । अननुविद्ध-सम्बद्ध या व्याप्त नहीं रहना । अनुपलंभ- अप्राप्त होना या उपलब्ध नहीं होने को अनुपलंभ कहते हैं । अप्रयोजक हेतु–“सपक्षव्यापक पक्ष व्यावृत्त: हि उपाधि प्राहित सम्बन्धः हेतुः" अर्थात् सपक्ष में __ व्यापक और पक्ष से व्यावृत्त होने वाला उपाधियुक्त अप्रयोजक कहलाता है । अपौरुषेय-पुरुष प्रयत्न से रहित को अपौरुषेय कहते हैं। अनुसंधान-जोड़ को अनुसंधान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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