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विशिष्ट शब्दावली
६३१ अंतरंग – “अव्यभिचारि प्रतिनियतम् अन्तरंगम्' अर्थात् अव्यभिचारपने से नियत होने को
अन्तरंग कहते हैं। अश्व विषाण-घोड़े के सींग ( नहीं होते ) अनुगत प्रत्यय-यह गो है यह गो है ऐसे सदृशाकार ज्ञान को अनुगत प्रत्यय कहते हैं। अपनीति-हटाना अनतिशयव्यावृत्ति---अतिशय रहित पने का हट जाना अर्थात् अतिशय पाना । अन्ध सर्प बिलप्रवेश न्याय-अन्धा सर्प चींटी आदि के कारण बिल से निकलकर इधर उधर
धूमता है और पुनः उसी बिल में प्रविष्ट होता है वैसे ही जैनेतर प्रवादी अनेकांतमय सिद्धांत को प्रथम तो मानते नहीं किन्तु घूम फिर कर अन्य प्रकार से उसी को
स्वीकृत कर लेते हैं उसे अन्ध सर्प बिल प्रवेश न्याय कहते हैं । (आ) पालोककारणवाद-मालोक अर्थात् प्रकाश ज्ञानका कारण है ऐसा नैयायिक मानते हैं ।
आवरण-ढकने वाला वस्त्र या कर्म आदि पदार्थ । आवारक-शब्द को एक विशिष्ट वायु रोकती है उसे आवारक कहते हैं ऐसा मीमांसक
मानते हैं। (ई) ईश्वरवाद-नैयायिक वैशेषिक, सांख्यादि प्रवादीगण ईश्वर कर्तृत्व को मानते हैं, इनका कहना
है कि जगत् के यावन्मात्र पदार्थ ईश्वर द्वारा निर्मित हैं, वह सर्व शक्तिमान् सर्वज्ञ
सर्वदर्शी है इत्यादि। (उ) उद्योतकर-न्यायदर्शन का मान्य ग्रन्थकार ।
उद्भूतवृत्ति-प्रगट होना। . उदात्त-उच्चस्वर से बोलने योग्य शब्द । ऊंचे विचार को भी उदात्त कहते हैं। उभयसिद्ध धर्मी-प्रमाण तथा विकल्प द्वारा सिद्ध धर्मी (पक्ष) को उभय सिद्ध धर्मी कहते हैं । उपलंभ-प्राप्त या उपलब्ध को उपलंभ कहते हैं।
उदंचन-जल सिंचने का पात्र विशेष । (ऊ) ऊह-तर्क प्रमाण को कहते हैं।। (क) कामला-पीलिया रोग को कामला कहते हैं।
किंचिज्ञ-अल्पज्ञानी। कवलाहार-अरहंत अवस्था में भगवान केवली भोजन करते हैं ऐसा श्वेताम्बर मानते हैं । कवल
अर्थात् ग्रास का आहार कवलाहार कहलाता है। क्रमानेकांत-क्रमिक अनेकांत को क्रमानेकांत कहते हैं। द्रव्य में पर्याय क्रम से होती हैं उसे भी
क्रमानेकांत कहते हैं।
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