Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 663
________________ ६१८ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रामाण्यं सुधियो धियो यदि मतं संवादतो निश्चितात्, स्मृत्यादेरपि किन्न तन्मतमिदं तस्याऽविशेषात्स्फुटम् । तत्संख्या परिकल्पितेयमधुना सन्तिष्ठतेऽतः कथम्, तस्माज्जैनमते मतिर्मतिमतां स्थयाच्चिरं निर्मले ॥१॥ इति श्रीप्रभाचन्द्रदेव विरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे तृतीयः परिच्छेदः ।। श्रीः ॥ करने वाला कोई प्रमाण नहीं है वैसे पद को सर्वथा अनंश रूप ग्रहण करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। जैसे प्रकृति आदि से पद कथंचित् भिन्नाभिन्न है वैसे पदों से वाक्य कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार "पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम्" ऐसा पूर्वोक्त वाक्य का लक्षण ही निर्दोष एवं प्रतीतिपद में आरूढ़ सिद्ध होता है ऐसा अभिहितान्वयवादी और अन्विताभिधानवादी भाट्ट एवं प्रभाकर को मानना चाहिये । उसके द्रव्यवाक्य और भाववाक्य ऐसे दो भेद हैं, द्रव्यवाक्य वचनात्मक है और भाववाक्य ज्ञानात्मक है ऐसा समझना चाहिए । अब प्रतीति की अपलाप से बस हो । ____ अब श्री प्रभाचन्द्राचार्य संपूर्ण तृतीय परिच्छेद में आगत विषयों का उपसंहार करते हुए अन्तिम मंगल श्लोक कहते हैं- बुद्धिमान पुरुष प्रमाण में प्रामाण्य सुनिश्चित संवाद से आता है ऐसा मानते हैं सो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान प्रादि प्रमाणों में भी सुनिश्चित संवाद मौजूद होने से उन्हें भी प्रमाणभूत क्यों न माना जाय ? अर्थात् अवश्य मानना चाहिये । जब स्मृति आदि ज्ञान भी प्रमाणभूत सिद्ध होते हैं तब अन्य अन्य परवादियों की प्रमाण संख्या किस प्रकार सिद्ध हो सकती है ? नहीं हो सकती। इस प्रकार निर्दोष प्रमाण, संख्या प्रादि समस्त विषयों का प्रतिपादन करने वाला, स्याद्वाद से निर्मल ऐसे जैन मत में सभी बुद्धिमानों की बुद्धि सदा स्थिर होवे । अर्थात् गृहीत मिथ्यात्व का त्याग करके निर्मल सम्यक्त्व को धारण करना चाहिये इसी से उभयलोक में सुख एवं कल्याण होगा । अस्तु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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