Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 665
________________ ६२० प्रमेयकमल मार्त्तण्डे अभिप्राय यह है कि प्रतिपत्ता को जितने परस्पर सापेक्ष पदों का समुदाय होने पर निराकांक्षा होती है, अन्य पदों की आकांक्षा नहीं होती वह पद समूह वाक्य कहलाता है । प्रख्यात शब्द को वाक्य कहे तो प्रश्न होता है कि वह धातु पद अन्य पद की अपेक्षा रखता है या नहीं, यदि रखता है तो कहीं पर भी निराकांक्ष न होने से प्रकृत अर्थ की परिसमाप्ति नहीं हो सकेगी, और यदि अन्य पद की अपेक्षा नहीं है तो एक पद को ही वाक्य कहने का प्रसंग आता है । वर्ण समूह को वाक्य कहे तो वही उपर्युक्त दोष आता है । वर्ण समुदाय में जो वपना अर्थात् वर्णत्व सामान्य है उसे वाक्य कहे तो भी प्रयुक्त है क्योंकि परवादी सामान्य को व्यापक एक नित्य मानते हैं ऐसा सामान्य खरविषाणवत् असत् है । एक निरंश शब्द अर्थात् स्फोट को वाक्य कहना तो स्फोट के निराकरण से ही निराकृत हो जाता है । इसी प्रकार क्रम, बुद्धि आदि को वाक्य कहना भी बाधित होता है । प्रभाकर का अन्वित प्रभिधान लक्षण भी अंध सर्प बिल प्रवेश न्याय का अनुसरण करता है अर्थात् अंधा सर्प चींटी आदि के कारण बिल से निकलता है और पुन: उसी में प्रविष्ट होता है उसी प्रकार जैन के वाक्य लक्षण की अनिच्छा करके पुनः उसी का ग्रहण करना होता है क्योंकि पदों का अर्थ अन्वित करके वाक्यार्थ का अवबोध कराने वाले पदों को वाक्य कहना जैन के वाक्य लक्षण को परिपुष्ट करना है । अभिहित का अन्वय करना वाक्य है ऐसा भाट्ट का लक्षण भी सदोष है, क्योंकि पदों के द्वारा कहा हुआ अर्थ यदि शब्दांतर से अन्वित होता है ऐसा कहना तो प्रयुक्त है, क्योंकि शब्दांतर अशेष अर्थ का निमित्त नहीं होता, यदि कहे कि पदों द्वारा कहा हुआ अर्थ बुद्धि से अन्वित किया जाता है तो बुद्धि को वाक्य कहने का प्रसंग आता है । इस प्रकार अन्य प्रवादियों के वाक्य के लक्षण सदोष सिद्ध होते हैं अतः “पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः वाक्यं" परस्पर सापेक्ष और अन्य पदों से निरपेक्ष ऐसे पद समूह को वाक्य कहना चाहिए, यही लक्षण निर्दोष सिद्ध होता है । ॥ सारांश समाप्त ।। इस प्रकार श्री माणिक्यनंदी विरचित परीक्षामुख सूत्र ग्रन्थ की टीका स्वरूप प्रमेय कमल मार्त्तण्ड में तृतीय परिच्छेद पूर्ण हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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