Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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वाक्यलक्षणविचारः
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क्वचिनिरपेक्षोसो, न वा ? प्रथमपक्षेऽस्मन्मत संगः । द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः; पदान्तरसापेक्षस्याप्यस्य क्वचिनिरपेक्षत्वाभावे प्रकृतार्थापरिसमाप्त्या वाक्यत्वाऽयोगादर्द्ध वाक्यवत् ।
संघातो वाक्यमित्यत्रापि देशकृतः, कालकृतो वा वर्णानां संघातः स्यात् ? न तावदाद्य विकल्पो युक्तः; क्रमोत्पन्नप्रध्वंसिनां तेषामेकस्मिन्देशेऽवस्थित्या संघातत्वासम्भवात् । द्वितीय विकल्पे तु पदरूपतामापन्नेभ्यो वर्णेभ्योऽसौ भिन्नः, अभिन्नो वा ? न तावद्भिन्नोनंशः; तथाविधस्यास्याऽप्रतीतेः, संघातत्वविरोधाच्च वर्णान्तरवत् । अथ तेभ्योऽभिन्नोसो; किं सर्वथा, कथञ्चिद्वा? सर्वथा चेत्; कथमसौ संघातः संघातिस्वरूपवत् ? अन्यथा प्रतिवर्ण संघातप्रसंगः। न चैको वर्णः संघातो नामातिप्रसंगात् । कथञ्चि
परस्पर के पदांतर का सापेक्ष होकर अन्य पद से निरपेक्ष होता है उसको वाक्य कहते हैं सो यही हम जैन के वाक्य का लक्षण है। दूसरा पक्ष-क्रिया पद कहीं पर भी निरपेक्ष नहीं होता ऐसा कहे तो ठीक नहीं, क्योंकि पदांतर का सापेक्ष होकर भी यदि यह क्रिया पद कहीं निरपेक्ष नहीं होवेगा तो प्रकृत अर्थ की समाप्ति नहीं होने से उसमें वाक्यपने का प्रयोग रहेगा जैसे कि अधूरे वाक्य में वाक्यपना नहीं होता।
वर्ण संघात को वाक्य कहते हैं ऐसा वाक्य लक्षण का पक्ष माने तो प्रश्न होगा कि वर्णों का संघात ( समूह ) देशकृत है या कालकृत है ? अाद्य विकल्प ठीक नहीं, क्योंकि वर्ण क्रम से उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं, अत: उनमें एक देश में अवस्थित होना रूप देशकृत संघात असंभव है। दूसरा विकल्प-वर्ण संघात कालकृत है ऐसा माने तो प्रश्न होता है कि यह कालकृत संघात पदरूपता को प्राप्त हुए वर्णों से भिन्न है कि अभिन्न है ? भिन्न तो हो नहीं सकता क्योंकि ऐसा वर्गों से भिन्न कालकृत वर्ण संघात कभी प्रतीत ही नहीं होता, वर्णों से भिन्न संघात में संघातपने का ही विरोध है जैसे एक वर्ण में संघातपना विरुद्ध है। कालकृत वर्ण संघात पद प्राप्त वर्णों से अभिन्न है ऐसा द्वितीय विकल्प कहे तो वह सर्वथा अभिन्न है या कथंचित् अभिन्न है ? सर्वथा कहे तो उसे संघात कैसे कहेंगे ? क्योंकि वह तो संघाति के स्वरूप के समान एक रूप हो गया ? अर्थात् समूह रूप नहीं रहा । यदि एकमेक हुए को भी संघात माना जाय तो प्रत्येक वर्ण को भी संघात मानना पड़ेगा। किन्तु एक वर्ण को संघात रूप मानना अति प्रसंग का कारण है अर्थात् इस तरह की मान्यता से अतिप्रसंग दोष आता है । पद प्राप्त वर्णों से कालकृत वर्ण संघात कथंचित् अभिन्न है ऐसा कहो तो हमारे जैन मत का प्रसंग होगा, क्योंकि जैन ही ऐसा मानते हैं कि -परस्पर में सापेक्ष और
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