Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 655
________________ ६१० प्रमेय कमलमार्त्तण्डे "पदार्थानां तु मूलत्वमिष्टं तद्भावनावतः ।" [ मी० श्लो० वाक्या० श्लो० १११ ] "पदार्थ पूर्वकस्तस्माद्वाक्यार्थोयमवस्थितः ।” [ मी० श्लो० वाक्या० श्लो० ३३६ ] इत्यभिधानात् तेष्यन्धसर्पबिल प्रवेशन्यायेनोक्तवाक्य लक्षणमेवानुसरन्ति; अन्योन्यापेक्षानाकाङ्क्षाक्षरपदसमुदायस्य वाक्यत्वेन तैरप्यभ्युपगमात् । यदि च पदान्तरार्थैरन्वितानामेवार्थानां पदैरभिधानात्पदार्थप्रतिपत्तेर्बाक्यार्थप्रतिपत्तिः स्यात्; तदा देवदत्तपदेनैव देवदत्तार्थस्य गामभ्याजेत्यादिपदवाक्यार्थे र न्वितस्याभिधानाच्छेषपदोच्चारणवैयर्थ्यम् । प्रथमपदस्यैव च वाक्यरूपताप्रसंग: । यावन्ति वा पदानि तावतां वाक्यत्वं यावन्तश्च पदार्था वाक्य के अर्थ का कारण पदों का अर्थ है ऐसा हम जानते हैं । इसलिये यह वाक्यार्थ पद के अर्थ पूर्वक अवस्थित होता है इत्यादि । सो यह अन्वित अभिधान रूप वाक्य का लक्षण करने वाले प्रभाकर भी अंध सर्प बिल प्रवेश न्याय के समान हम जैन के वाक्य के लक्षण का ही अनुसरण करते हैं, अर्थात् जिस प्रकार चींटी प्रादि के उपद्रव के भय से अंधा सर्प बिल से निकलता है किन्तु घूमकर उसी बिल में प्रविष्ट होता है उस प्रकार जैन के वाक्यलक्षण को नहीं चाहते हुए भी घुमाकर उसी लक्षण को स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि अन्योन्य में सापेक्ष और वाक्यांतर से निराकांक्ष ऐसे पद समुदाय को ही वाक्य रूप से प्रभाकर द्वारा स्वीकृत किया गया है अत: जैन का वाक्य लक्षण ही सर्व मान्य एवं निर्दोष सिद्ध होता है । श्रन्विताभिधानवाद वाक्य लक्षण का निश्चय होने के अनन्तर वाक्य के अर्थ पर विचार प्रारम्भ होता है, परवादी प्रभाकर वाक्यार्थ को इस प्रकार मानते हैं कि - संपूर्ण पद अपने पूर्वोत्तर पदों के अर्थों से अन्वित ( सहित ) ही रहते हैं अतः उन्हीं प्रर्थों का पदों द्वारा कथन किये जाने से पद के अर्थ की प्रतिपत्ति से वाक्यार्थ प्रतिपत्ति हो जाती है । आशय यह कि किसी विवक्षित वाक्य में जो भी पद हैं वे एक दूसरे पद के अर्थ से सहित हुआ करते हैं अतः पद के अर्थ का बोध होने पर वाक्यार्थ का बोध हो जाता है । किन्तु ऐसा प्रति अभिधान मानने पर दूषण यह आता है कि कोई एक विवक्षित वाक्य में स्थित देवदत्तादि पद हैं उनमें से एक देवदत्त पद द्वारा ही देवदत्त अर्थ के साथ गां ग्रम्याज (गाय को हटाओ ) इत्यादि पद एवं वाक्य के अर्थों का अन्वित कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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