Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
यच्चोच्यते
"पाख्यातशब्दः संघातो जातिः संघातवतिनी। एकोऽनवयवः शब्दः क्रमो बुद्धचऽनुसंहृती ॥१॥ पदमाद्य पदं चान्त्यं पदं सापेक्ष मित्यपि । वाक्यं प्रति मतिभिन्ना बहुधा न्यायवेदिनाम् ॥२॥"
[ वाक्यप० २।१-२] इति; तदप्युक्तिमात्रम्; यस्मादाख्यातशब्दः पदान्तर निरपेक्षः, सापेक्षो वा वाक्यं स्यात् ? न तावदाद्यः पक्षः; पदान्तरनिरपेक्षस्यास्य पदत्वात् । अन्यथा पाख्यातपदाभावः स्यात् । द्वितोयपक्षेपि
___भावार्थ-सूत्र तथा श्लोकों में ऐसे वाक्य या पद पाये जाते हैं जिनमें अध्याहार रूप से प्रकरण के अनुसार अन्य वाक्य या केवल पद जोड़कर अर्थ प्रतिभास कराया जाता है । जैसे "न देवाः" इस सूत्र के वाक्य में "नपुसकाः भवंति" इतना वाक्य साकांक्ष है अर्थात् प्रकरण प्राप्त अध्याहृत किया जाता है । इसी तरह “तत्र च सत्यभामा" इस वाक्य में “तिष्ठति" इतना पद अपेक्षित है। फिर भी ये दोनों वाक्य कहलाते हैं क्योंकि प्रकरण के ज्ञाता पुरुष को इतने वाक्य से भी अर्थ प्रतिभास होता है।
वाक्य के विषय में भर्तृहरि ने कहा है कि-धातु क्रिया रूप पद को वाक्य कहते हैं, वर्गों के संघात को भी कोई विद्वान वाक्य मानते हैं, इसी तरह वर्ण समुदाय में स्थित वर्णत्व जाति को, निरवयव एक शब्द को, वर्णों के क्रम को, बुद्धि को एवं परामर्श को भी कोई कोई विद्वान वाक्य मानते हैं ।।१।। तथा प्राद्यपद सापेक्ष ऐसा अंतिम पद वाक्य कहलाता है अथवा अंत्यपद सापेक्ष पाद्यपद वाक्य है, इत्यादि रूप से वाक्य के लक्षण में न्यायवेदी पुरुषों के भिन्न भिन्न अभिमत हैं ॥२॥
किन्तु परवादी का उपर्युक्त प्रतिपादन असत् है। आगे क्रमशः उक्त वाक्य लक्षणों का निरसन किया जाता है-आख्यात शब्द अर्थात् क्रियापद पदांतर निरपेक्ष होकर वाक्य कहलाता है या सापेक्ष होकर ? प्रथम पक्ष अयुक्त है, क्योंकि जो पदांतर निरपेक्ष होता है वह वाक्य नहीं अपितु पद रूप होता है, अन्यथा क्रिया पद में पदत्व का अभाव हो जायेगा। दूसरे पक्ष में भी क्रिया पद कहीं पर निरपेक्ष होता है कि नहीं होता ? प्रथम पक्ष कहो तो हमारे जैन मत का प्रसंग आता है। अर्थात् क्रिया पद
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