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प्रकृतिकत्तत्ववादः बन्धमोक्षाभावश्च सत्कार्यवादिनोऽनुषज्यते । बन्धो हि मिथ्याज्ञानात्, तस्य च सर्वदावस्थितत्वेन सर्वदा सर्वेषां बद्धत्वात्कुतो मोक्षः ? प्रकृतिपुरुषयोः कैवल्योपलम्भलक्षणतत्त्वज्ञानाञ्च मोक्षा, तस्य च सदावस्थितत्वेन सर्वदा सर्वेषां मुक्तत्वात्कुतो बन्धः ? सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गश्च, लोकः खलु हिताहितप्राप्तिपरिहारार्थं प्रवर्त्तते । सत्कार्यवादपक्षे तु न किञ्चिदप्राप्यमहेयं चास्तीति निरीहमेव जगत्स्यात् ।
यदसत्तन्न केनचित्क्रियते इति चासङ्गतम्; हेतोविपक्षे बाधकप्रमाणाभावेनानेकान्तात् । कारणशक्तिप्रतिनियमाद्धि किञ्चिदेवासक्रियते यस्योत्पादकं कारणमस्ति । यस्य तु गगनाम्भोरुहादे
छोड़ा नहीं है उसका तिरोभाव होना भी असंभव है, और दूसरे प्रकार की उपलब्धि होना भी असंभव है अतः उसका आवरण भी किसप्रकार होवेगा जिससे कि उसके अपगम हो जाने को अभिव्यक्ति कह सकेंगे ? क्योंकि असत् का आवरण मानना प्रयुक्त है, उसका भी कारण यह है कि आवरणं सत् रूप वस्तुका होता है । सत्कार्यवादी सांख्यके यहां बंध और मोक्ष के अभाव का प्रसंग भी आता है क्योंकि मिथ्याज्ञान से बन्ध होता है और उसके सदा अवस्थित रहने के कारण हमेशा सभी प्राणियों की बद्ध अवस्था होने से मोक्ष किस प्रकार हो सकता है ? तथा प्रकृति और पुरुष के विवेक की उपलब्धि स्वरूप तत्त्व ज्ञान के होने से मोक्ष होता है ऐसा आप मानते हैं सो वह तत्त्वज्ञान सदा अवस्थित रहने के कारण हमेशा सभी प्राणियों का मुक्तपना होने से बन्ध किस प्रकार हो सकता है ? संपूर्ण लोक व्यवहार का उच्छेद होने का प्रसंग भी आता है, क्योंकि लोक हित प्राप्ति और अहित परिहार के लिये ही प्रवृत्ति किया करते हैं, किन्तु सत्कार्यवाद के पक्षमें न कोई अप्राप्य है और न कोई अहेय है अतः अखिल विश्व निरीह हो जायगा ।
___ जो असत् होता है वह किसी के द्वारा नहीं किया जाता ऐसा कहना भी असंगत है, क्योंकि इस हेतु का विपक्षमें जाने में बाधा करने वाला प्रमाण नहीं है अतः यह अनैकान्तिक है । असत् को करने की बात ऐसी है कि कारण के शक्ति का प्रतिनियम हुआ करता है उसके नियमानुसार किसी किसी असत् को ही किया जा सकता है जिसका कि उत्पादक कारण मौजूद है, किन्तु जिस आकाश पुष्प आदिका कारण नहीं है उसको नहीं किया जाता । हम जैन सबको सबका कारण नहीं मानते हैं, न हमारे यहां ऐसा नियम है कि जो जो असत् हो वह वह किया ही जाता हो, किन्तु जो किया जाता है वह उत्पत्तिके पहले कथंचित् असत् ही रहता है ऐसा हमारा सिद्धांत है ।
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