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प्रमेयकमलमार्तण्डे
दिव्यपरमाणू नां लाभाद् घटते । एवं छद्मस्थावस्थावच्च केवल्यवस्थायामप्यस्य भुक्त्यऽभ्युपगमे अक्षिपक्ष्मनिमेषो नखकेशवृद्ध्यादिश्चाभ्युपगम्यताम् । तदभावातिशयाभ्युपगमे वा भुक्त्यभावातिशयोप्यभ्युपगन्तव्यो विशेषाभावात् ।
ननु मासं वर्ष वा तदभावे तत्स्थितावपि नाऽऽकालं तत्स्थिति: पुनस्तदाहारे प्रवृत्त्युपलम्भादिति चेत्; कुत एतत् ? आकालं तत्स्थितेरनुपलम्भाच्चेत्; सर्वज्ञवीतरागस्याप्यत एवासिद्धाभमिच्छतो मूलोच्छेदः स्यात् । दोषावरणयोहन्यितिशयोपलम्भेन क्वचिदात्यन्तिकप्रक्षय सिद्ध स्तत्सिद्धौ क्वचिच्छरीरिण्यात्यन्तिको भुक्तिप्रक्षयोपि प्रसिध्येत् तदुपलम्भस्थात्राप्यविशेषात् । तन्न शरीरस्थितेभगवतो भुक्तिसिद्धिः।
के एक वर्ष पर्यन्त विना भोजनके शरीर बना रहा इत्यादि । शरीरकी स्थितिमें प्रमुख हेतु आयु कर्म है, भोजनादिक उसके सहायक हैं। भगवानका शरीर लाभांतराय कर्म का सर्वथा नाश हो जानेसे प्रतिसमय आनेवाले दिव्य परमाणुगोंसे परिपुष्ट एवं स्वस्थ बना रहता है, अर्थात् केवली भगवान आहार तो नहीं करते किन्तु नोकर्माहार द्वारा उनका शरीर पुष्ट रहता है। क्योंकि लाभांतराय कर्मका नाश हो चुका है । यदि श्वेतांबर भगवानके भी छद्मस्थ जीवोंके समान भोजन करना स्वीकार करते हैं तो नेत्रकी पलकें लगना, नख केशोंका बढ़ना आदिको भी स्वीकार करना होगा किन्तु आप नख केशोंकी वृद्धि नहीं होना इत्यादिको अतिशय मानते हैं, अतः भोजनका अभावरूप अतिशय भी अवश्य मानना चाहिये, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है।
___ श्वेतांबर-यद्यपि मनुष्योंका शरीर महिनों तक या वर्ष तक विना भोजनके रह सकता है किन्तु मरणकाल पर्यन्त तो नहीं रह सकता । महिना आदि के बाद तो अवश्य भोजन करना पड़ता है ?
दिगम्बर-इस बातको आप किस हेतुसे सिद्ध करेंगे ? मरण काल तक शरीर की स्थिति विना भोजनके दिखायी नहीं देती अतः ऐसा सिद्ध करते हैं, ऐसा कहो तो इसी हेतु द्वारा सर्वज्ञ वीतरागकी प्रसिद्धि होनेसे लाभके बजाय मूलका ही नाश होना जैसी उक्ति चरितार्थ होगी? [अर्हतसर्वज्ञके कवलाहार माननेसे उनके सर्वज्ञपनेका ही अभाव सिद्ध होगा ] यदि कहा जाय कि "किसी पुरुष विशेषमें प्रावरणकर्म और रागादि दोष अत्यंत नाशको प्राप्त होते हैं, क्योंकि उन आवरणादिमें हीयमानपना देखा जाता है, इस सुप्रसिद्ध अनुमान द्वारा सर्वज्ञ वीतरागका सद्भाव सिद्ध होता है ? तो
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