________________
२५२
प्रमेयकमलमार्तण्डे
- कालात्ययापदिष्टश्चायं हेतुः; ज्ञानादीनां स्वसंवेदनप्रत्यक्षाच्चेतनत्वप्रसिद्ध रध्यक्षबाधितपक्षानन्तरं प्रयुक्तत्वात् । चेतनसंसर्गात्तेषां चेतनत्वप्रसिद्धिः; इत्यप्यचिताभिधानम्; शरीरादेरपि तत्प्रसिद्धिप्रसङ्गात् चेतनप्र(त्व)संसर्गाविशेषात् । शरीराधसम्भवी तेषां संसर्गविशेषोस्तीति चेत्; स कोन्योऽन्यत्र कथञ्चित्तादात्म्यात् ? तददृष्टकृतकत्वादेः शरीरादावपि भावात् । ततो नाचेतना ज्ञानादयः स्वसंवेद्यत्वादनुभववत् । स्वसंवेद्यास्ते परसंवेदनान्यथानुपपत्ते रिति स्वसंवेदनसिद्धिप्रस्तावे प्रति
है, बुद्धिके अध्यवसायकी अपेक्षा रखनेसे अनुभव पर सापेक्ष ही है, कहा भी है "बुद्ध्यध्वसितमर्थं पुरुषश्चेतयते"। यह उत्पत्तिमत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष युक्त भी है क्योंकि ज्ञानादि धर्म स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा ही चेतन रूप प्रसिद्ध हो रहे हैं, प्रत्यक्ष प्रमाणसे पक्षके बाधित होने पर इस उत्पत्तिमत्व हेतुका प्रयोग हुआ है इसीलिये उक्त दोषसे दुष्ट है।
सांख्य-चेतनका संसर्ग होनेके कारण ज्ञानादि धर्म चेतनरूप प्रसिद्ध होते हैं ?
जैन-यह कथन चर्चा योग्य नहीं है, चेतनका संसर्ग होने मात्रसे कोई चेतन रूप प्रसिद्ध हो तो शरीरादिको भी चेतनरूप प्रसिद्ध होना चाहिये क्योंकि चेतनका ससर्ग तो इनके भी है ?
सांख्य-शरी दिमें असंभव ऐसा चेतन का विशेष संसर्ग उन ज्ञानादिमें पाया जाता है अतः वे ही चेतनरूप प्रसिद्ध होते हैं ।
- जैन-वह विशेष संसर्ग भी कथंचित् तादात्म्यको छोड़कर अन्य कोई नहीं हो सकता अर्थात् ज्ञानादिधर्म और चेतनधर्मी इनका परस्पर तादात्म्य सम्बन्ध है ऐसा आपके उक्त संसर्ग शब्दका अर्थ है । अदृष्ट द्वारा [पुण्य पाप द्वारा] किये गये संसर्ग को संसर्ग विशेष कहना तो पूर्ववत् सदोष होगा, क्योंकि अदृष्टकृत संसर्ग विशेष शरीरादिमें भी है। अतः अनुमान प्रमाण द्वारा सिद्ध होता है कि ज्ञान दर्शनादि गुणधर्म अचेतन नहीं हैं, क्योंकि वे स्वसंवेद्य हैं, जैसे अनुभव स्वसंवेद्य होनेसे अचेतन नहीं है । ज्ञान आदिका स्वसंवेद्यपना भी तर्क संगत है, ज्ञानादि धर्म अपने द्वारा अनुभवन करने योग्य [जानने योग्य होते हैं, क्योंकि पर संवेदनको अन्यथानुपपत्ति है अर्थात् यदि ये ज्ञानादिक स्वद्वारा संवेद्यमान नहीं होते तो वे परका संवेदन भी नहीं कर सकते थे, इस विषयका प्रतिपादन पहले स्वसंवेदनज्ञानवादमें [प्रथम भाग में कर चुके हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org