Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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शब्दनित्यत्ववाद।
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यच्च सादृश्ये दूषणमुक्तम्
"तथा भिन्नमभिन्न वा सादृश्यं व्यक्तितो भवेत् । एवमेकमनेकं वा नित्यं वानित्यमेव वा ॥१॥ भिन्ने चैकत्व नित्यत्वे जातिरेव प्रकल्पिता। व्यक्त्यऽनन्यदथैकं च सादृश्यं नित्यमिष्यते ॥२।। व्यक्तिनित्यत्वमापन्नं तथा सत्यस्मदीहितम्।"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २७१-२७३ ] इत्यादि; तदप्ययुक्तम्; स्वहेतोरेकस्य हि यादृशः परिणामस्तादृश एवापरस्य सादृश्यम्, न तु स एव । स च व्यक्तिभ्यो भिन्नोऽभिन्नश्च, तथाप्रतीतेः । न च जातिस्तथाभूता; नित्यव्यापित्वेनाभ्युपगमात् ।
भावार्थ-यहां पर आचार्य मीमांसक को समझा रहे हैं कि यदि आप संकेत कालीन शब्द को एक ही मानकर अर्थ प्रतीति होना स्वीकार करते हो तो रसोई घर का धूम और पर्वत का धूम दोनों धमों को एक मानकर उसके द्वारा अग्नि का ज्ञान होना स्वीकार करना होगा ? यदि मीमांसक कहे कि ऐसी बात कैसे स्वीकार करें ? वह तो पृथक ही धूम होता है रसोई घर का धूम पर्वत पर कैसे आया ? सो यही बात शब्द के विषय में है, संकेत काल के शब्द और व्यवहार काल के शब्द अलग अलग ही हैं। जिस प्रकार रसोई घर के धम के सदृश पर्वत का धम होने से उससे अग्नि का ज्ञान होना स्वीकार करते हैं उसो प्रकार संकेत काल के शब्द सदृश व्यवहार काल के शब्द होने से उससे अर्थ की प्रतीति होती है ऐसा मानना चाहिए ।
सादृश्य धर्म में दूषण देते हुए मीमांसक के यहां कहा जाता है कि सादृश्य धर्म व्यक्ति से (विशेष से) भिन्न होता है या अभिन्न ? एक होता है या अनेक ? यदि अनेक रूप है तो वह भी नित्य है कि अनित्य ? यदि सादृश्य को व्यक्ति से भिन्न और सर्वथा नित्य मानते हैं तब तो वह सामान्य ही कहलायेगा ? तथा यदि व्यक्ति से अभिन्न, एक नित्य मानते हैं तो व्यक्ति भी नित्य बन जायगा ? क्योंकि उससे अभिन्न जो सादृश्य है वह नित्य है, इस तरह हमारा इष्ट तत्व ही सिद्ध होता है ।।१।।२।।
भावार्थ यह है कि हम मीमांसक शब्द में सादृश्य को न मानकर एकत्व मानते हैं, जैन शब्द को अनित्य मानते हैं अतः वे वाच्य वाचक संबंध को सादृश्यता के
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