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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रसिद्धं भवेत्तदाश्वाद्यपोहाश्रयत्वमविशेषेणैषां प्रसिद्धय नान्यथा। अतोऽपोहविषयत्वमेषामिच्छताऽवश्यं सारूप्यमंगीकर्तव्यम् । तदेव च सामान्यं वस्तुभूतं भविष्यतीत्यपोहकल्पना वृथैव ।।
यदि वाऽसत्यपि सारूप्ये शावलेयादिष्वगोपोहकल्पना तदा गवाश्वयोरपि कस्मान्न कल्प्येताऽसौ विशेषाभावात् ? तदुक्तम्
"अथाऽसत्यपि सारूप्ये स्यादपोहस्य कल्पना । गवाश्वयोरयं कस्मादगोपोहो न कल्प्यते ।।१।। शावलेयाच्च भिन्नत्वं बाहुलेयाश्वयोः समम् । सामान्यं नान्यदिष्टं चेत्क्वागोपोहः प्रवर्त्तताम् ॥२॥"
[ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ७६-७७ ]
होवे तो अश्व आदि पदार्थों के अपोह का आश्रयपना इनमें सिद्ध हो सकता है अन्यथा नहीं, अर्थात् गो आदि पदार्थों में सादृश्य या सामान्य को नहीं मानते तो वे पदार्थ अन्यापोह के आश्रयभूत नहीं हो सकते । अतः गो आदि में अपोह का विषयपना चाहने वाले बौद्ध को सादृश्य धर्मको अवश्य स्वीकार करना होगा। और इस तरह सादृशको स्वीकार करने पर वही सामान्य होने से वास्तविक सामान्य भी सिद्ध होगा फिर अपोह की कल्पना करना व्यर्थ ही है ।
यदि शाबलेय आदि गो व्यक्तियों में सादृश्य के नहीं रहते हुए भी अगो अपोह की कल्पना शक्य है तो गो और अश्व में भी उक्त कल्पना को क्यों नहीं कर सकेंगे ? सादृश्य का अभाव तो समान ही है ? अन्यत्र भी कहा है कि - सादृश्य के अभाव में भी यदि अपोह की कल्पना संभावित है तो गो अश्वों में किस कारण से एक अगो अपोह कल्पित नहीं किया जाता ? ॥१॥ यदि कहा जाय कि गो और अश्व में भिन्नता होने के कारण एक अगो अपोह आश्रयत्व की कल्पना नहीं होती तो शाबलेयादि गो में भी यही बात है अर्थात् शाबलेय गो से बाहुलेय गो और अश्व समान रूप से भिन्न है फिर भी उक्त गो की केवल अश्क से अगो व्यावृत्ति होती है, बाहुलेय से नहीं होती ऐसा क्यों ? पाप बौद्ध के यहां जब वास्तविक सामान्य को स्वीकार ही नहीं किया तब यह अगो अपोह किस आश्रय में रहे ? अर्थात् कहीं पर भी नहीं रह सकता ।।२।।
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