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स्फोटवादः
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अनेक व्यक्ति रूप अभिव्यंग्य होने वाली जो जाति है वह स्फोट कहलाता है । शब्द का श्रवण पूर्ण होते ही हमें जो उसके अर्थ की या भाव ज्ञान की तात्कालिक उपलब्धि होती है उसे ही स्फोट कहते हैं । नाद और स्फोट के लिए ऐसा भी कह सकते हैं कि नाद बाह्येन्द्रिय का विषय है और सहसा उद्भूत स्फोट प्राणचेतना का विषय है | स्फोट स्वयं एक है किन्तु उसका अभिव्यंजक नाद ( शब्द वर्ण) जब स्वयं उत्पन्न होकर उसको प्रगट करता है तब भाव ज्ञान की उपलब्धि होना रूप स्फोट अनुभव में प्राता है । स्फोट के अनन्तर ध्वनि नामकी प्रक्रिया होती है " स्फोटादेव उपजायते" स्फोट से होने वाली ये ध्वनियां अर्थ विस्तार करती हैं । स्फोट अर्थ के चित्र के समान है और ध्वनियां अर्थ के चिंतन के समान है । बुद्धि में जो अर्थ है वह "स्वरूप" नामा चौथा चरण है । इस प्रकार ये चार प्रक्रिया शब्द और अर्थ के बीच में हुआ करती हैं । इनमें से यहां पर स्फोट का विशेष विचार किया है ।
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अब जैन सिद्धांतानुसार उपर्युक्त परवादी के कथन पर विमर्श करते हैं, शब्द पुद्गल नाम के दृश्य एवं जड़ पदार्थ की पर्याय ( अवस्था ) है, जो कुछ काल तक ठहरती है । विशेष प्रयोग द्वारा अधिक काल तक भी ठहर सकती है । शब्द के अक्षरात्मक अनश्चरात्मक भाषात्मक प्रभाषात्मक, ततवितत घन सुबिर आदि ग्रनेक भेद पाये जाते हैं जिनका राजवात्र्तिक आदि ग्रन्थों में वर्णन पाया जाता है । पुद्गल के अनेक भेदों में भाषा वर्गणा नाम का एक भेद है यही भाषा वर्गणा सब प्रकार के शब्दों को उत्पत्ति उपादान है । शब्द के निर्माण में उपादान तो एक भाषा वर्गणा ही है किन्तु निमित्त अनेक प्रकार के हैं। यहां प्रकृत में मुख विनिर्गत शब्द की चर्चा है जो भाषात्मक एवं अक्षरात्मक है । इसका उपादान एक भाषा वर्गणा होते हुए भी निमित्त कारण तालु, कंठ प्रादि अनेक हैं । शब्द में रूपादि गुण यद्यपि पुद्गल होने के नाते रहते हैं किन्तु वे अव्यक्त रूप से रहते हैं । प्रतिकूल वायु से उपघात होना, यन्त्र द्वारा ग्रहण में आ जाना इत्यादि प्रक्रिया से शब्द का मूर्त्तिकपना सहज ही सिद्ध होता है अतः उसको प्रमूर्त्त मानने का परवादि का सिद्धांत सत्य है । ध्वनि और नाद ये दोनों तो शब्द के ही नामांतर हैं जिसको परवादी ने शब्द से पृथक् तत्व रूप स्वीकार किया है । भाषा वर्गणा सर्वत्र व्यापक है. उसका अस्तित्व भी सदा रहता है । प्रतीत होता है कि इसी वजह से परवादी शब्द को नित्य एवं व्यापक मान बैठे हैं। क्योंकि मिथ्यात्व के उदय से वस्तु स्वरूप का विपर्यास हुआ ही करता है । यहां केवल भाषा
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