________________
स्फोटवादः
६०१
अंत में एक प्रश्न रह जाता है कि - मुख से निकले हुए शब्द क्रमशः उत्पन्न होकर विष्ट होते हैं तो श्रोता को अक्षर समूह से होने वाला ज्ञान कैसे होगा ? इस जटिल समस्या को प्रभाचन्द्राचार्य ने बहुत ही सुन्दर रीति से सुलझाया है कि - "पूर्व वर्ण विज्ञानाभाव विशिष्टः तज्ज्ञानजनित संस्कार सव्यपेक्षो वा अंत्यवर्णो अर्थ प्रतीत्युत्पादकः” । अथवा "पूर्व वर्णज्ञान प्रभव संस्कारश्च प्रणालिकया अंत्यवर्ण सहायतां प्रतिपद्यते " । यद्वा शब्दार्थोपलब्धि निमित्त क्षयोपशम प्रतिनियमादविनष्टा एव पूर्व वर्णं संविदस्तत्संस्काराश्च अंत्यवर्ण संस्कारं विदधति इति । वर्ण क्रमशः उत्पन्न होकर नष्ट होते हैं किन्तु उनका विज्ञान जन्य संस्कार नष्ट नहीं होता अतः अंतिम वर्ण को वह संस्कार सहायता पहुंचाता है और उससे अर्थ का प्रतिभास होता है । या पूर्व वर्ण ज्ञान से संस्कार होता है और वह प्रवाह क्रम से अंतवर्ण को सहायक होता है । अथवा शब्द और अर्थ की उपलब्धि में निमित्तभूत क्षयोपशम के प्रतिनियम से अविनष्ट ऐसे जो पूर्व पूर्व वर्ण के ज्ञान हैं एवं तज्जनित संस्कार हैं वे अंतिम वर्ण के संस्कार को करते हैं और उससे अर्थ की प्रतीति होती है । अर्थात् शब्द और अर्थ को जानने का ज्ञानावरण को क्षयोपशम आत्मा में मौजूद रहता है अतः क्रमशः वर्ण पद एवं वाक्य को सुनकर अर्थ बोध हो जाता है ।
इस प्रकार निश्चय हुआ कि शब्द और अर्थ बोध के बीच में तीसरा स्फोट नामका कोई पदार्थ नहीं है । यदि इसे मानना है तो 'स्फुटति प्रतिभासते प्रर्थः अस्मिन् इति श्रात्मा, जिसमें अर्थ प्रतिभासित होता है ऐसा चैतन्य आत्मा या उसका ज्ञान ही स्फोट है ऐसा मानना चाहिए । इस तरह स्फोटवाद का निरसन हो जाता है ।
Jain Education International
॥ स्फोटवाद समाप्त ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org