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प्रमेयकमलमार्तण्डे
"तत्र शब्दान्तरापोहे सामान्ये परिकल्पिते । तथैवावस्तुरूपत्वाच्छब्दभेदो न कल्प्यते ॥२।।"
[ मी० श्लो० अपोह० श्लो० १०४ ] ततो ये अवस्तुनी न तयोर्गम्यगमकभावो यथा खपुष्प-खर-विषाणयोः । प्रवस्तुनी च वाच्यवाचकापोहौ भवतामिति । ननु मेघाभावादृष्टयभावप्रतिपत्तेरनैकान्तिकता हेतोः; इत्यप्ययुक्तम्; तद्विविक्ताकाशालोकात्मकं हि वस्तु मत्पक्षेत्रापि प्रयोगेस्त्येव, अभावस्य भावान्तरस्वभावत्वप्रतिपादनात् । भवत्पक्षे तु न केवलमपोहयोविवादास्पदीभूतयोर्गम्यगमकत्वाभावोऽपि तु वृष्टिमेघाद्यभावयोरपि।
विनष्ट होने से व्यवहार करते समय वे तो रहते नहीं, उस समय तो सामान्य शब्दार्थ ही कहने में आते हैं ।।१।। सामान्य शब्द और अर्थ में वाच्य वाचकभाव माने ऐसा भी आप बौद्ध कह नहीं सकते, क्योंकि शब्द को अन्यापोह का वाचक माना है एवं उस अपोह रूप सामान्य को काल्पनिक माना है अतः अवस्तु रूप सामान्य से शब्दों का भेद होना सर्वथा अशक्य ही है ।।२।। इन दोनों कारिकाओं का भावार्थ यह है कि - विशेष स्वलक्षणभूत क्षणिक जिसको कि वास्तविक मानते हैं उस शब्द और अर्थ में तो वाच्य वाचक भाव होना अशक्य है क्योंकि प्रथम बात तो यह है कि ये क्षणिक हैं दूसरी बात बौद्धों ने इनमें वाच्य वाचकता मानी भी नहीं। सामान्य शब्द और अर्थ में वाच्य वाचक भाव तो भी नहीं बनता, क्योंकि अापने सामान्य को अवस्तु माना है । अतः पहले जो कहा था कि वाच्य के भेद से अपोह में भेद होता है इत्यादि, सो घटित नहीं होता।
इस प्रकार बौद्ध के यहां सामान्य वाच्य और उसके वाचक शब्द ये तथा इनके अपोह अवस्तु रूप स्वीकार किये हैं। जो अवस्तु रूप होते हैं उनमें गम्यगमक भाव नहीं होता जैसे आकाश पुष्प और खर विषाण में गम्यगमक भाव नहीं होता। आपके वाच्य वाचक अपोह भी अवस्तु रूप ही हैं अत: गम्यगमकपना असंभव है।
बौद्ध-अवस्तु में गम्य गमकपना नहीं होता ऐसा कहना अनैकान्तिक दोष युक्त है, क्योंकि "मेघों का अभाव होने से वर्षा का अभाव है" इस प्रकार अभाव रूप साध्य और अभाव रूप हेतु में गम्यगमकपना पाया जाता है ये साध्य साधन भो तो अवस्तु रूप हैं ?
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