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प्रमेयकमलमार्तण्डे नापि तद्योगे संकेतः; तस्यापि समवायादिलक्षणस्य निराकृतत्वात् । जातितद्योगयोश्चासंभवे तद्वतोप्यर्थस्यासम्भवात्कथं तत्रापि संकेतः ? बुद्ध्याकारे वा; स हि बुद्धितादात्म्येन स्थितत्वान्न बुद्धयन्तरं प्रतिपाद्यमर्थ वानुगच्छति ।
किंच, इतः शब्दादर्थ क्रियार्थी पुरुषोऽर्थक्रियाक्षमानर्थान्विज्ञाय प्रतिष्यते' इति मन्यमानर्व्यवहर्तृभिरभिधायका नियुज्यन्ते न व्यसनितया। न चासौ विकल्पबुद्ध्याकारोऽथिनोभिप्रेतं शीतापनोदादिकार्य सम्पादयितु समर्थः।
सामान्य रूप जाति का जिसमें सम्बन्ध हो उसमें संकेत करते हैं ऐसा तीसरा विकल्प भी उचित नहीं, क्योंकि समवाय आदि सब प्रकार के सम्बन्ध का हम बौद्ध ने निराकरण किया है । चौथा विकल्प-जातिमान् पदार्थ में संकेत किया जाता है ऐसा कहना भी असत् है क्योंकि सामान्य रूप जाति और जाति संयोग वाला पदार्थ इन दोनों के असंभव होने पर जातिमान् पदार्थ का होना भी असंभव ही है अतः उसमें किस प्रकार संकेत किया जा सकता है ? पांचवा विकल्प-गो आदि पदार्थ के आकार रूप हुई बुद्धि में संकेत किया जाता है ऐसा मानना भी अयुक्त है, क्योंकि वह बुद्धि में स्थित पदार्थ का आकार बुद्धि में तादात्म्यपने से स्थित हो चुका है वह अन्य बुद्धि में अथवा प्रतिपाद्यभूत पदार्थ में अनुगमन नहीं करता अतः उसमें संकेत कैसे सम्भव है ? दूसरी बात यह है कि-अर्थ क्रिया के इच्छुक पुरुष उस अर्थ क्रिया में समर्थ ऐसे पदार्थों को ज्ञात करके प्रवृत्ति करेंगे ऐसा मानकर व्यवहारी जनों द्वारा शब्दों को नियुक्त किया जाता है न कि बिना प्रयोजन के किन्तु विकल्प बुद्धि में स्थित यह जो अर्थाकार है वह अर्थीजन के अभिलषित शीतापनोद आदि कार्य को करने में समर्थ नहीं है । फिर उसमें संकेत करना भी किसलिये ?
तथा यदि बुद्धि में स्थित अर्थाकार में शब्दों का संकेत होना स्वीकार करे तो हम अपोहवादी बौद्धों का पक्ष ही स्वीकृत होता है, आगे इसी को बताते हैं-अपोहवादी के मत में भी बुद्धि में स्थित आकार बाह्य रूप से प्रतीत होता है एवं शब्द से वाच्यार्थ होता है ऐसा माना ही है, यह शब्द अर्थ विवक्षा को तो उसका कार्य होने से जतलाता है जैसे धूम अग्निका कार्य होने से उसको जतलाता है।
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