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अपोहवादः अथाऽसत्यप्यर्थेऽतीतानागतादौ शब्दस्य प्रवृत्ति(ते) स्यार्थाभिधायकत्वम्; तदसत्; तस्येदानीमभावेपि स्वकाले भावात्, अन्यथा प्रत्यक्षस्याप्यर्थविषयत्वाभावः स्यात् तद्विषयस्यापि तत्कालेऽभावात् । अविसंवादस्तु प्रमाणान्तरप्रवृत्तिलक्षणोऽध्यक्षवच्छाब्देप्यनुभूयत एव । 'पासीद्वह्निः' इत्याद्यतीतविषये वाक्ये विशिष्टभस्मादिकार्यदर्शनोद्भूतानुमानेन संवादोपलब्धेः, चन्द्रार्कग्रहणाद्यनागतार्थविषये तु प्रत्यक्षप्रमाणेनैव । क्वचिद्विसंवादात्सर्वत्र शाब्दस्याऽप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्यापि क्वचिद्विसंवादात्सर्वत्राप्रामाण्यप्रसंगः । ततो निराकृतमेतत्
बौद्ध-अतीत अनागतादि काल में पदार्थ के नहीं रहते हुए भी उसमें शब्द की प्रवृत्ति पायी जाती है अतः शब्द को अर्थ का अभिधायक नहीं मानते ?
जैन- यह कथन अयुक्त है, उक्त पदार्थ इस समय नहीं होने पर भी स्वकाल में तो विद्यमान हो था अतः शब्द उसके अभिधायक हो सकते हैं यदि ऐसा न माना जाय तो उक्त पदार्थ प्रत्यक्ष का विषय भी नहीं हो सकेगा क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान के काल में भी उसके विषयभूत पदार्थ नहीं होते। अभिप्राय यह है कि आपके क्षणिक मतानुसार शाब्दिक ज्ञान के समय और प्रत्यक्ष ज्ञान के समय दोनों समयों में भी पदार्थ विद्यमान नहीं रहता अतः यदि पदार्थ के विद्यमान नहीं होने के कारण शब्द को अर्थ का अभिधायक नहीं मानते तो प्रत्यक्ष ज्ञान को भी उसका ग्राहक नहीं मानना होगा । यदि कहा जाय कि प्रत्यक्ष ज्ञान में अविसंवाद रहता है अतः वह अर्थ का ग्राहक माना जाता है सो यह बात शाब्दिक ज्ञान में भी संभव है, अर्थात् प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति होना रूप अविसंवाद प्रत्यक्ष के समान शब्द जन्य ज्ञान में भी अनुभव में आता ही है। "अग्नि थी" इत्यादि अतीत अर्थ को विषय करने वाले वाक्य में विशिष्ट भस्म (राख) आदि कार्य के देखने से उत्पन्न हुए अनुमान प्रमाण द्वारा संवाद हो जाता है अर्थात् सत्यता पाती है तथा चन्द्र ग्रहण सूर्य ग्रहण आदि आगामी पदार्थ को विषय करने वाले वाक्य में तो प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा ही संवाद हो जाता है। यदि कहा जाय कि शब्दजन्य ज्ञान के विषयभूत पदार्थ में कहीं कहीं विसंवाद देखा जाता है अत: सभी शब्दजन्य ज्ञान में अप्रामाण्य माना गया है तो प्रत्यक्षज्ञान के विषय में भी कहीं विसंवाद देखा जाने से उसे भी सर्वत्र अप्रामाणिक मानना होगा। इसलिये शाब्दिक ज्ञान में सत्यता मानना अावश्यक है एवं शब्द द्वारा वास्तविक पदार्थ में संकेत होना उसका ग्रहण होना इत्यादि
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