Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 638
________________ स्फोटवाद: वरणस्यास्य सर्वत्र सर्वदोपलभ्यस्वभावत्वात् । अनुपलभ्यस्वभावत्वे वा न क्वचित्कदाचित्केनचिदप्युपलभ्येत । अथैकदेशेनावरणापगमः क्रियते; नन्वेवमावृतानावृतत्वेन सावयवत्वमस्यानुषज्येत । अथाऽविनिर्भागत्वादेकत्रानावृतः सर्वत्रानावृतोऽभ्युपगम्यते; तहि तदवस्थोऽशेषदेशावस्थितरुपलब्धिप्रसंगः। यथा च निरवयत्वादेकत्रानावृतः सर्वत्रानावृतः तथैकत्रावृतः सन्त्राप्यावृत इति मनागपि नोपलभ्येत । __अथ स्फोटविषयसंवेदनोत्पादस्तत्संस्कारः; सोप्ययुक्तः; वर्णानामर्थप्रतिपत्तिजननवत् स्फोटप्रतिपत्तिजननेपि सामर्थ्यासम्भवात्, न्यायस्य समानत्वात् । ___अथ मतम्-पूर्ववर्णश्रवणज्ञानाहितसंस्कारस्यात्मनोऽन्त्यवर्णश्रवणज्ञानानन्तरं पदादिस्फोटस्याभिव्यक्तेरयमदोषः; तदप्यसंगतम्; पदार्थप्रतिपत्त रप्येवं प्रसिद्धः स्फोटपरिकल्पनार्थनक्यात् । अतः आवरण के दूर होते ही सर्वत्र सर्वदा उसकी उपलब्धि होने लगेगी अर्थात् सभी को सर्वदा अर्थ प्रतीति होने का अतिप्रसंग आयेगा। यदि स्फोट में अनुपलभ्य स्वभाव मानते हैं तो कहीं पर कभी भी किसी पुरुष को उसकी उपलब्धि नहीं हो सकेगी ? क्योंकि सदा सर्वत्र एकसा स्वभाव रूप है। यदि कहा जाय कि एक देश से ही स्फोट के प्रावरण का अपगम किया जाता है तो आवृत और अनावृत ऐसे स्फोट के अनवय हो जाने से निरंश मानने का सिद्धांत बाधित होता है। यदि निविभाग होने से स्फोट को एक जगह अनावृत होने से सर्वत्र अनावृत मानते हैं तो वही दोष पाता है कि सर्व देश में अवस्थित हुए पुरुषों द्वारा स्फोट उपलब्ध होने से सभी को अर्थ प्रतीति होने का प्रसंग आता है । तथा निरंश होने से स्फोट एकत्र अनावृत है तो सर्वत्र अनावृत ही रहता है उस प्रकार कदाचित् एक जगह आवृत है तो सर्वत्र आवृत है इस तरह की कल्पना संभावित होने पर वह स्फोट किंचित् भी उपलब्ध नहीं होवेगा और इसलिये अर्थ प्रतीति भी किंचिन्मात्र नहीं हो सकेगी। स्फोट के विषय में संवेदन का उत्पाद होना स्फोट संस्कार कहलाता है ऐसा प्रथम पक्ष कहे तो भी प्रयुक्त है, क्योंकि जिस प्रकार वर्गों में अर्थ प्रतीति को उत्पन्न करने को सामर्थ्य आप नहीं मानते उस प्रकार उनमें स्फोट प्रतीति को उत्पन्न करने की सामर्थ्य भी नहीं मान सकते, न्याय तो सर्वत्र समान होना चाहिये, यदि अर्थ प्रतीति की सामर्थ्य नहीं तो स्फोट प्रतीति की भी नहीं । वैयाकरणवादी-पूर्व वर्ण के श्रवण ज्ञान से उत्पन्न हुआ है संस्कार जिसको ऐसे पुरुष के अंत्य वर्ण के श्रवण ज्ञान के अनन्तर पदादि स्फोट की अभिव्यक्ति हो जाने से यह दोष नहीं आता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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