Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे चिदात्मव्यतिरेकेण तत्त्वान्तरस्यास्यार्थप्रकाशनसामर्थ्यासम्भवाच्च स एव हि चिदात्मा विशिष्टशक्तिः स्फोटोऽस्तु । 'स्फुटति प्रकटोभवत्यर्थोस्मिन्' इति स्फोटश्चिदात्मा। पदार्थज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशिष्टः पदस्फोट: । वाक्यार्थज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशिष्टस्तु वाक्यस्फोटः इति । भावश्रुतज्ञानपरिणतस्यात्मनस्थाभिधानाऽविरोधात् ।
वायवः स्फोटाभिव्यञ्जकाः; इत्यप्ययुक्तम् शब्दाभिव्यक्तिवत्स्फोटाभिव्यक्त स्तेभ्योऽनुपपत्तेः । तेषां च व्यञ्जकत्वे वर्णकल्पनावैफल्यम्, स्फोटाभिव्यक्तावर्थप्रतिपत्तौ चामीषामनुपयोगात्। स्थिते च स्फोटस्य वर्णवायूत्पादात्पूर्वं सद्भावे वर्णानां वायूनां वा व्यंजकत्वं परिकल्प्येत । न चास्य सद्भावः कुतश्चित्प्रमाणात्प्रतिपन्नः । यच्चोक्तम्
जैन-यह कथन भी असंगत है, इस तरह तो अर्थ प्रतिपत्ति भी हो सकती है अतः स्फोट की कल्पना करना व्यर्थ ही हो जाता है। तथा चैतन्य आत्मा को छोड़ कर अन्य वस्तु में अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य हो असंभव है इसलिये वही विशिष्ट शक्ति वाला चैतन्य आत्मा "स्फोट" है ऐसा मान लेवे ? "स्फुटति प्रकटी भवति अर्थः अस्मिन् इति स्फोट: चिदात्मा” इस प्रकार निरुक्ति सिद्ध अर्थ भी उपलब्ध होता है । पदार्थ सम्बन्धी ज्ञानावरण कर्म और वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से युक्त आत्मा का होना पदस्फोट कहलाता है। वाक्यार्थ सम्बन्धी ज्ञानावरण कर्म और वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से युक्त प्रात्मा का होना वाक्य स्फोट कहलाता है, ऐसा मानना चाहिये। भाव श्र तज्ञान से परिणत अात्मा को इस तरह कहने में कोई विरोध नहीं आता ।
___ स्फोट के अभिव्यंजक संस्कार न होकर वायु है ऐसा कहना भी प्रयुक्त है, क्योंकि जैसे शब्द को वायु अभिव्यक्त नहीं कर सकती वैसे स्फोट को भी अभिव्यक्त नहीं कर सकती। दूसरी बात यह भी है कि वायु द्वारा स्फोट का अभिव्यक्त होना मानने पर वर्ण को स्वीकार करना व्यर्थ ठहरता है, क्योंकि स्फोट के अभिव्यक्ति से अर्थ की प्रतीति हो जाने पर वर्णों की कोई उपयोगिता नहीं रहती है । तथा वर्ण और वायु के उत्पाद के पहले स्फोट का सद्भाव सिद्ध होता तो वर्ण अथवा वायु उसके अभिव्यंजक माने जाते, किन्तु किसी भी प्रमाण से स्फोट का सद्भाव ज्ञात नहीं होता है।
इस स्फोट के विषय में भर्तृहरि का कहना है कि-नाद से ( पूर्व वर्ण या वायु से ) प्राप्त हो गया है संस्कार जिसमें, तथा अंतिम ध्वनि के साथ ( अंतिम वर्ण
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