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स्फोटवादः
"नादेनाऽहित बीजायामन्ये (न्त्ये ) न ध्वनिना सह । प्रावृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते ।। ”
[ वाक्यप० १८५ ] इति;
तदप्येतेनापाकृतम् ; नित्यत्वमन्तरेणामपि चार्थप्रतिपत्तिर्यथा भवति तथा प्रतिपादितमेव ।
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यच्च श्रवणव्यापारानन्तरमित्याद्युक्तम्; तदप्यसारम्; घट । दिशब्देषु परस्परव्यावृत्तकालप्रत्यासत्तिविशिष्टवर्णव्यतिरेकेण स्फोटात्मनोऽर्थप्रकाशकस्यैकस्याध्यक्ष प्रतिपत्तिविषयत्वेनाप्रतिभासनात् । न चाभिन्नप्रतिभासमात्रादभिन्नार्थव्यवस्था, अन्यथा दूरादविरलाने कतरुषु एक प्रतिभासादेकत्वव्यवस्था स्यात् । न चास्य बाध्यमानत्वान्नैकत्वव्यवस्थापकत्वम्; स्फोटप्रतिभासेपि बाध्यमानत्वस्य प्रदर्शित - त्वात् । न खलु निरवयवोऽक्रमो नित्यत्वादिधर्मोपेतोऽसौ क्वचिदपि प्रत्ययेऽवभासते ।
या वायु के साथ ) जिसमें समस्त रूप से परिपाक हो चुका है ऐसी बुद्धि में शब्द अर्थात् स्फोट प्रतिभासित होता है । इत्यादि । सो यह कथन भी पूर्वोक्त रीत्या निराकृत हुआ समझना चाहिए। क्योंकि नित्य स्फोट या नित्य शब्द के बिना भी अनित्य रूप शब्द द्वारा अर्थ की प्रतीति भली प्रकार से हो जाती है ऐसा हम जैन सप्रमाण सिद्ध कर चुके हैं ।
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और जो कहा था कि- - श्रवण व्यापार के अनन्तर एक अर्थ बुद्धि में अवभासित होता है वह स्फोट है, इत्यादि सो वह भी प्रसार है, क्योंकि घटादि शब्दों में परस्पर में व्यावृत्त एवं काल की निकटता से विशिष्ट ऐसे वर्ण ही अर्थ के प्रकाशक होते हुए प्रत्यक्ष से प्रतीत होते हैं उक्त वर्णों के अतिरिक्त स्फोट रूप कोई एक पदार्थ अर्थ प्रकाशन करता हो ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान के गोचर ही नहीं है । तथा ज्ञान में एक अभिन्न अर्थ प्रतिभासित होने मात्र से कोई अभिन्न एक अर्थ की व्यवस्था नहीं हुआ करती है, यदि सर्वथा ऐसा माना जाय तो अविरल रूप से स्थित अनेक वृक्ष दूर से एक अभिन्न रूप प्रतिभासित होने से उनको भी एक मानना होगा । वृक्षों में होने वाला एकत्व का प्रतिभास बाध्यमान है अतः उन वृक्षों में एकत्व स्थापित नहीं किया जाता, ऐसा कहो तो स्फोट के प्रतिभास में भी बाध्यमानत्व दिखला चुके हैं । आपका नित्य निरंश आदि धर्म युक्त ऐसा यह स्फोट किसी भी ज्ञान में अवभासित नहीं होता है ।
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