Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 636
________________ स्फोटवादः ५६१ मूर्तेष्वेव भावात् । नापि वासनारूपः; अचेतनत्वात् स्फोटस्य तच्चैतन्याभ्युपगमे वा स्वशास्त्रविरोधः । नापि स्थितस्थापकः; अस्यापि मूर्त द्रव्यवृत्तित्वात्, स्फोटस्य चाऽमूर्तत्वाभ्युपगमात् । किंच, असौ सस्कारः स्फोटस्वरूपः, तद्धर्मों वा? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः; स्फोटस्य वर्णोत्पाद्यत्वानुषंगात् । द्वितीयविकल्पोऽसम्भाव्यः; व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तविकल्पानुपपत्तेः । स्फोटात्तस्याव्यतिरेके तत्करणे स्फोट एव कृतो भवेत्, तथा चास्याऽनित्यत्वानुषंगात् स्वाभ्युपगमविरोधः। ततस्तद्धर्मस्य व्यतिरेके सम्बन्धानुपपत्तिः तदनुपकारकत्वात् । तस्योपकाराभ्युपगमे व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तविकल्पा संस्कार तीन प्रकार का माना है वेग संस्कार, वासना संस्कार और स्थितस्थापक संस्कार, इनमें से वेग नाम का संस्कार वर्णों द्वारा नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसको मूत्तिक द्रव्यों में ही स्वीकार किया है। वासना नाम का संस्कार वर्ण द्वारा नहीं किया जा सकता क्योंकि स्फोट अचेतन है और वासना चेतन रूप मानी जाती है। यदि स्फोट को चेतन स्वरूप स्वीकार करेंगे तो स्व शास्त्र से विरोध आयेगा, क्योंकि आपके शास्त्र में स्फोट को अचेतन माना है। स्थितस्थापक संस्कार भी वर्ण द्वारा किया जाना अशक्य है क्योंकि यह मूर्त द्रव्य में पाया जाता है और स्फोट को आपने अमूर्त माना है। तथा यह वर्ण ज्ञान से उत्पन्न हुअा संस्कार स्फोट स्वरूप ही है अथवा उसका धर्म है ? स्फोट स्वरूप ही है ऐसा कहना अयुक्त है क्योंकि ऐसा कहने से स्फोट वर्ण द्वारा उत्पन्न किया जाता है ऐसा सिद्ध होता है और इससे स्फोट के नित्य मानने का व्याघात होता है । उक्त संस्कार स्फोट का धर्म है ऐसा द्वितीय विकल्प भी असंभव है, क्योंकि वह धर्म स्फोट से पृथक् है कि अपृथक् है ऐसे दो विकल्प होकर दोनों ही सिद्ध नहीं हो पाते । अर्थात् स्फोट से उक्त संस्कार रूप धर्म अप्रथक मानते हैं तो उसके करने पर स्फोट को किया ऐसा होता है और इससे स्फोट के अनित्यत्व प्रसंग आने से स्वमत में विरोध होता है अर्थात् स्फोट को नित्य मानने का व्याघात होता है । स्फोट से उक्त संस्कार रूप धर्म पृथक् है ऐसा दुसरा पक्ष माने तो स्फोट के साथ उस धर्म का सम्बन्ध न होने से उसका अनुपकारक ही रहेगा, यदि उसे उपकारक माना जाय तो भी वह भिन्न है कि अभिन्न ऐसे विकल्प होकर दोनों विकल्पों में वही पूर्वोक्त अनवस्थाकारी दोष उपस्थित होता है। तथा स्फोट से भिन्न ऐसा उक्त संस्कार रूप धर्म का सद्भाव मान लेने पर भी स्फोट का अनभिव्यक्त स्वरूप समाप्त नहीं होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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