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स्फोटवादः
५८६ वाक्यार्थप्रतिपत्तावप्ययमेव न्यायोऽङ्गीकर्तव्यः। वर्णाद्वर्णोत्पत्त्यभावप्रतिपादनं च सिद्धसाधनमेव । तदेवं यथोक्तसहकारिकारणसव्यपेक्षादन्त्यवर्णादर्थप्रतिपत्तेरन्वयव्यतिरेकाभ्यां निश्चयात् स्फोटपरिकल्पनाऽसम्भव एव; तदभावेप्यर्थप्रतिपत्तेरुक्तप्रकारेण सम्भवेऽन्यथानुपपत्तेः प्रक्षयात् । न खलु दृष्टादेव कारणात्कार्योत्पत्तावदृष्टकारणान्तरपरिकल्पना युक्तिः स(क्तिस)ङ्गता अतिप्रसंगात् ।
न चैवंवादिनो वर्णेभ्यः स्फोटाभिव्यक्तिर्घटते; तथाहि-न समस्तास्ते स्फोटमभिव्यञ्जयन्ति; उक्तप्रकारेण तेषां सामस्त्यासम्भवात् । नापि प्रत्येकम्; वर्णान्तरोच्चारणानर्थक्यप्रसंगात्, एकेनैव
संविद ( ज्ञान ) और उनसे होने वाले संस्कार ये सबके सब अंत्य वर्ण के संस्कार को करते हैं, या उक्त प्रकार के संस्कार से प्रादुर्भूत हुई स्मृति की जिसको अपेक्षा है ऐसा अंतिम वर्ण गो आदि पदार्थ के प्रतिभास का हेतु बनता है.। वाक्य से होने वाले अर्थ के प्रतिभास में भी यही न्याय स्वीकार करना चाहिये । वैयाकरणवादी ने कहा था कि वर्ण से वर्ण की उत्पत्ति नहीं होती सो हमारे लिये सिद्ध साधन हो है, अर्थात् हम जैन भी वर्ण से वर्ण की उत्पत्ति होना नहीं मानते। इस प्रकार उक्त सहकारी कारण की जिसमें अपेक्षा है ऐसे अंतिम वर्ण से अर्थ की प्रतिपत्ति होना सिद्ध होता है, इसमें अन्वय व्यतिरेक से निश्चय होता है अर्थात् अंत्यवर्ण के सद्भाव में अर्थ प्रतिपत्ति होती है उसके अभाव में अर्थ प्रतिपत्ति नहीं होती, अतः स्फोट की कल्पना असंभव ही है । क्योंकि उक्त प्रकार से स्फोट के अभाव में भी अर्थप्रतीति होना संभव है इसलिये स्फोट के साथ अर्थ प्रतिपत्ति की अन्यथानुपपत्ति करना अशक्य है। प्रत्यक्षभूत कारण से कार्य की उत्पत्ति होना सिद्ध होने पर उसमें अदृष्ट ऐसे अप्रत्यक्षभूत कारणांतर की कल्पना करना युक्तिसंगत नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग उपस्थित होगा।
___ समस्त वर्ण से अर्थ प्रतीति होती है या व्यस्तवर्ण से इत्यादिरूप से प्रश्न करने वाले परवादी वर्गों से स्फोट की अभिव्यक्ति होना मानते हैं किन्तु वह घटित नहीं होता, उस पक्ष में भी हम आप से पूर्ववत् प्रश्न करेंगे कि समस्त वर्ण स्फोट को
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