Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 628
________________ 999০৪999999999999৪ १६ स्फोटवादः 6:6:36:66E6CEEEEEEEED सत्यम्; वाच्य एवार्थः । तद्वाचकस्तु पदादिस्फोट एव न पुनर्वर्णाः । ते हि किं समस्ताः, व्यस्ता वा तद्वाचकाः ? यदि व्यस्ताः तदैकेनैव वर्णेन गवाद्यर्थप्रतिपत्तिरुत्पादितेति द्वितीयादिवर्णोच्चारणमनर्थकम् । अथ समुदिताः; तन्न; क्रमोत्पन्नानामन्तरविनष्टत्वेन समुदायस्यैवासम्भवात् । न च युगपदुत्पन्नानां तेषां समुदाय कल्पना; एकपुरुषापेक्षया युगपदुत्पत्त्यसम्भवात् प्रतिनियतस्थानकरण जब जैन ने बौद्ध के प्रति सिद्ध किया कि शब्द द्वारा वास्तविक पदार्थ ही वाच्य होता है, तब वैयाकरणवादी भर्तृहरि आदि अपना मंतव्य उपस्थित करते हैं— Jain Education International पदार्थ वाच्य ही होते हैं इसमें कोई प्रसत्य बात नहीं है किन्तु उस वाच्यभूत पदार्थों का वाचक तो पदादिस्फोट ही होता है । वर्ण, वाक्यादि से व्यक्त होने वाला नित्य, व्यापक ऐसा पदादि का अर्थ है वह पदादिस्फोट कहलाता है, वही पदार्थ का वाचक है न कि वर्ण ( शब्द ) । आगे इसीका वर्णन करते हैं - जैनादि परवादी गकारादि वर्णों को अर्थ का वाचक मानते हैं सो समस्त वर्ण वाचक होते हैं या व्यस्तवर्ण वाचक होते हैं ? यदि व्यस्तवर्ण वाचक होते हैं तो एक ही वर्ण से गो आदि अर्थ की प्रतीति उत्पन्न हो जायगी । द्वितीय आदि वर्ण का उच्चारण तो व्यर्थ ठहरेगा । समस्त वर्ण वाचक होते हैं ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जो वर्ण क्रम से उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं उनमें समस्त रूप समुदाय की कल्पना असम्भव है । युगपत् उत्पन्न हुए वर्णों में समुदाय की कल्पना होवेगी ऐसा कहना भी प्रयुक्त है क्योंकि एक पुरुष की अपेक्षा लेकर ( अर्थानु एक पुरुष से ) युगपत् समुदाय रूप अनेक वर्ग उत्पन्न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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