Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
होता अतः वे प्रपोह मात्र को कहते हैं सो शब्द से अस्पष्ट ज्ञान होना दोषास्पद नहीं है, शब्द से अस्पष्ट जानकर पुनः चक्षु आदि इन्द्रियों से उन पदार्थों को स्पष्ट जाना जाता है !
आपने कहा कि इन्द्रिय द्वारा अन्य ही कोई वस्तु ग्रहण होती है और शब्द शब्द गोचर पदार्थ वास्तविक है कि नहीं ? उसको नहीं मानना गलत है और यदि
के द्वारा अन्य, सो इस पर हम पूछते हैं कि यदि हैं तो अस्पष्ट आकार होने मात्र से वास्तविक नहीं है तो उसका मानना ही व्यर्थ है ।
आपका कहना है कि शब्द द्वारा मात्र प्रभाव कहा जाता है किन्तु स्वर्ग, मोक्ष, धर्म आदि शब्द से सद्भाव रूप अर्थ का ज्ञान होता हुआ देखा जाता है अन्यथा इन धर्मादि का प्रतिपादन करने वाले बुद्ध भगवान असत्वादी कहलायेंगे । यदि सचमुच में गो शब्द अगो व्यावृत्ति को करता है तो उसके सुनने पर गाय रूप अर्थ में तत्काल प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि अगो की व्यावृत्ति करने में कुछ समय तो लगेगा ही । दूसरी बात यह है कि अगो-व्यावृत्ति करते समय भी गो का ज्ञान होना आवश्यक है । गो के ज्ञान बिना अगो का ज्ञान कैसे होगा और अगो का ज्ञान न होने पर उसकी व्यावृत्ति भी कैसे होगी । अतः द्राविड़ो प्राणायाम को छोड़कर गो शब्द का वाच्य सीधा गाय रूप अर्थ ही जानना चाहिये । इस प्रकार बौद्ध के अपोहवाद का निरसन हो जाता है ।
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॥ समाप्त |
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