Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 629
________________ ५८४ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रयत्नप्रभवत्वात्तेषाम् । न च भिन्नपुरुषप्रयुक्तगकारौकारविसर्जनीयानां समुदायेप्यर्थप्रतिपादकं प्रतिपन्नम्। प्रतिनियतवर्णक्रमप्रतिपत्त्युत्तरकालभावित्वेन शाब्दप्रतिपत्तेः प्रतिभासनात् । न चान्त्यो वर्णः पूर्ववर्णानुगृहीतो वर्णानां क्रमोत्पादे सत्यर्थप्रतिपादकः; पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण प्रत्यनुग्राहकत्वायोगात् । तद्धि अन्त्यवर्णं प्रति जनकत्वं तेषां स्यात्, अर्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं वा ? न तावज्जनकत्वम्; वर्णाद्वर्णोत्पत्तेरभावात्, प्रतिनियतस्थानकरणादिप्रभवत्वात्तस्य, वर्णाभावेप्याद्यवर्णोत्पत्त्युपलम्भाच्च । नाप्यर्थज्ञानोत्पत्ती सहकारित्वं तेषामन्त्यवर्णानुग्राहकत्वम्; अविद्यमानानां सहकारित्वस्यैवासम्भवात् । यथा चान्त्यवर्णं प्रति पूर्ववर्णाः सहकारित्वं न प्रतिपद्यन्ते तथा तज्जनितसंवेदनान्यपि, तत्प्रभवसंस्काराश्च। हो ही नहीं सकते, क्योंकि उन वर्गों की उत्पत्ति प्रतिनियत स्थान, तालु, कंठ, ओष्ठ आदि प्रतिनियत क्रिया, ईषत् स्पष्टकरण आदि एवं प्रयत्न से हुया करती हैं। पृथक् पृथक पुरुष द्वारा युगपत् प्रयुक्त किये गकार औकार और विसर्जनीयका समुदाय बनकर उसमें अर्थ का प्रतिपादकत्व ( वाचकत्व ) पायेगा ऐसा कहना भी गलत है, क्योंकि प्रतिनियत वर्णक्रम से प्रतिपत्ति होकर उत्तर काल में शाब्दिक ज्ञान होता है, ऐसा ही सभी को प्रतिभासित होता है । वर्गों का क्रम से उत्पाद होने पर पूर्व पूर्व वर्णों द्वारा अनुगृहीत हुआ अंतिम वर्ण अर्थ का प्रतिपादक होता है ऐसा कोई कहे तो वह अयुक्त है, क्योंकि पूर्व वर्ण अंतिम वर्ण के प्रति अनुग्राहक नहीं हो सकते । परवादी पूर्व वर्ण को अंतिम वर्ण का अनुग्राहक मानते हैं सो उसमें प्रश्न होता है कि पूर्व वर्ण अंतिम वर्ण के प्रति जनक रूप से अनुग्राहक है अथवा अर्थ ज्ञान की उत्पत्ति में सहकारि रूप से अनुग्राहक है ? जनक रूप से अनुग्राहक तो हो नहीं सकते क्योंकि वर्ण से वर्ण को उत्पत्ति होती ही नहीं, वह तो अपने अपने नियत तालु, कंठ, प्रोष्ठ, मूर्ना, दंत, जिह्वा आदि पाठ स्थान, अपने नियत ईषत् स्पष्टकरण प्रादि करण एवं प्रयत्न से हुया करती है। तथा अन्य वर्ण के अभाव में भी आद्यवर्ण की उत्पत्ति देखी जातो है अतः पूर्व वर्ण अंत्य वर्ण का जनक रूप से अनुग्राहक है ऐसा कहना असत्य है। अर्थ ज्ञान की उत्पत्ति में पूर्व वर्ण अंत्यवर्ग के सहायक होने से अनुग्राहक माने जाते हैं ऐसा द्वितीय विकल्प भी अनुचित है, क्योंकि अंत्यवर्ण के समय पूर्व वर्ण विद्यमान हैं, अविद्यमान पदार्थ में सहकारीपना तो असंभव ही है । जिस प्रकार पूर्व वर्ण अंतिम वर्ण के प्रति सहकारिरूप सिद्ध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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