Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयक मल मार्त्तण्डे
सकलवचसां विवक्षामात्रविषयत्वाभ्युपगमाच्च तावन्मात्रसूचकत्वेन च शाब्दस्य प्रामाण्ये सर्वं शाब्दविज्ञानं प्रमाणं स्यात्, प्रत्यागमस्यापि प्रतिवाद्यभिप्रायप्रतिपादकत्वाविशेषात् ।
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किंच, अर्थव्यभिचारवच्छब्दानां विवक्षाव्यभिचारस्यापि दर्शनात्कथं ते तामपि प्रतिपादयेयुः ? गोत्रस्खलनादौ ह्यन्यविवक्षायामप्यन्यशब्दप्रयोगो दृश्यते एव । 'सुविवेचितं कार्यं कारणं न व्यभिचरति ' इति नियमोऽर्थविशेषप्रतिपादकत्वेप्यस्याऽस्तु ।
भी कह सकते हैं कि हमारे वचन ही अर्थ दर्शन प्रभव है परके नहीं ? सो समान ही बात है ।
तथा सम्पूर्ण वचन ( साध्य साधन के वचन या अन्य वचन ) विवक्षामात्र को विषय करते हैं ऐसा माना जाता है, सो विवक्षामात्र के सूचक होने से शाब्दिक ज्ञान में प्रामाण्य स्वीकार करे तो सभी शाब्दिक ज्ञान प्रामाणिक होंगे, फिर परवादी के आग़म वचन में भी प्रामाणिकता माननी होगी, क्योंकि वे वचन भी प्रतिवादी के अभिप्राय अर्थात् विवक्षा के सूचक हैं |
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किंच, जिस प्रकार शब्दों का अर्थ के साथ व्यभिचार देखने में आता है अर्थात् बिना अर्थ के भी शब्द प्रवृत्त होते हैं उस प्रकार विवक्षा व्यभिचार भी देखने में आता है अर्थात् विवक्षा के बिना भी शब्द प्रवृत्त होते हैं अथवा विवक्षा अन्य होती है और शब्द अन्य निकलते हैं प्रत: शब्द विवक्षा का भी किस प्रकार प्रतिपादन कर सकते हैं ? गोत्र स्खलन आदि में गोत्र अर्थात् नाम उसका स्खलन अर्थात् नाम तो कुछ हो और कहे कुछ अन्य रूप ) देखा भी जाता है कि कहने की विवक्षा तो कुछ अन्य रहती है और शब्द प्रयोग होता है कुछ अन्य ही । यदि कहा जाय कि "सुविवेचितं कार्यं कारणं न व्यभिचरति" भली प्रकार से विवेचित हुआ कार्य कारण के साथ व्यभिचरित नहीं होता ऐसा नियम है अत: विचार पूर्वक प्रयुक्त हुए शब्द विवक्षा के साथ व्यभिचरित नहीं हो सकेंगे, सो यह नियम अर्थ प्रतिपादकत्व में भी सुघटित होगा अर्थात् संकेत आदि पूर्वक प्रयुक्त हुआ शब्द अर्थ के साथ व्यभिचरित नहीं होता ऐसा स्वीकार करना चाहिए ।
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