Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
अपोहवादः
५७५ न चास्य विवक्षायास्तदधिरूढार्थस्य वा प्रतिपादकत्वं युक्तम्; ततो बहिरर्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिप्रतीतेः प्रत्यक्षवत् । यथैव हि प्रत्यक्षात्प्रतिपत्तृप्रणिधानसामग्रीसापेक्षात्प्रत्यक्षार्थप्रतिपत्तिस्तथा संकेतसामग्रीसापेक्षादेव शब्दाच्छब्दार्थप्रतिपत्तिः सकलजनप्रसिद्धा, अन्यथाऽतो बहिरर्थे प्रतिपत्त्यादि
दूसरी बात यह है कि शब्द केवल विवक्षा को कहते हैं अथवा विवक्षा में अधिरूढ़ पदार्थ को कहते हैं ऐसा मानना ही अनुचित है, क्योंकि अन्तरंग में स्थित विवक्षा में अथवा विवक्षा में अधिरूढ़ पदार्थ में शब्द द्वारा प्रतीति, प्रवृत्ति एवं प्राप्ति नहीं होती अपितु उससे भिन्न बाह्य घट पट आदि पदार्थों में होती है जैसे प्रत्यक्ष द्वारा बाह्यार्थ में प्रतीति, प्रवृत्ति एवं प्राप्ति हुआ करती है ।
भावार्थ - शब्द अर्थ के वाचक न होकर विवक्षा के वाचक होते हैं ऐसा किसी बौद्धादि के प्रतिपादन करने पर जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द में अर्थ व्यभिचार के समान विवक्षा व्यभिचार भी देखा जाता है, अर्थात् जिस प्रकार अर्थ के नहीं होते हुए भी उसके वाचक शब्द कोई कदाचित् उपलब्ध होते हैं उस प्रकार विवक्षा के नहीं होते हुए या अन्य विवक्षा के होते हुए भी कदाचित् अन्य कोई शब्द मुख से निकल जाया करते हैं, ऐसा होता हुआ देखा ही जाता है कि कहने की इच्छा रहती है घट और शब्द निकलता है पट, विवक्षा रहती है रमेश की और शब्द निकलता है जिनेश, यदि कहा जाय कि विचार पूर्वक शब्द बोलते हैं तो विवक्षाव्यभिचार नहीं होता तो यही बात अर्थव्यभिचार के विषय में है अर्थात् जो शब्द विचार पूर्वक बोला जाता है वह अर्थ से व्यभिचरित नहीं होता । अतः शब्द विवक्षा को ही कहते हैं अर्थ को नहीं इत्यादि कथन अयुक्त सिद्ध होता है। शब्द को सुनकर अर्थ का ज्ञान अवश्य होता है इसलिये वह उसका अवश्य वाचक है। शब्द द्वारा पदार्थ का जैसा प्रतिभास होता है वैसा पदार्थ साक्षात् उपलब्ध भी होता है, शब्द को सुनकर पदार्थ को उठाना, देना आदि क्रिया भी होतो है फिर किस प्रकार शब्द को अर्थ का प्रतिपादक नहीं माने ? प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी इसी प्रकार पदार्थ की प्रतिपत्ति अादि होती है, किसी अन्य प्रकार से नहीं। अतः जिस प्रकार प्रत्यक्ष को अर्थ का प्रतिपादक मानते हैं उसी प्रकार शब्द को भी अर्थ का प्रतिपादक मानना ही होगा।
सर्वजन सुप्रसिद्ध बात है कि जिस प्रकार प्रतिपत्ति करने वाले पुरुष के प्रणिधान ( एकाग्रमन ) रूप सामग्री की जिसमें अपेक्षा है ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org