Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

Previous | Next

Page 618
________________ अपोहवादः ५७३ वाक्यस्य कथञ्चिदर्थसंस्पशित्वे सर्वथार्थस्यानभिधेयत्वविरोधः । स्वपक्ष विपक्षयोश्च सत्यासत्यत्वप्रदर्शनाय शास्त्रं प्रणयन् वस्तु सर्वथाऽनभिधेयं प्रतिजानाति इत्युपेक्षणीयप्रज्ञः, सर्वथाभिधेयरहितेन तेन तस्य प्रणेतुमशक्तेः। "शक्तस्य सूचकं हेतुवचोऽशक्तमपि स्वयम्' [ प्रमाणवा० ४।१७ ] इत्यभिधानात् । तत्कृतां तत्त्वसिद्धि मुपजीवति, नार्थस्य तद्वाच्यतामिति किमपि महाद्भुतम् ! वस्तुदर्शनवंशप्रभवत्वाद्ध तुवचो वस्तुसूचकम्; इत्यक्षणिकवादिनोपि समानम् । मद्वचनमेवार्थ दर्शनवंशप्रभवं न पुनः परवचनम्; इत्यन्यत्रापि समानम्। से अर्थ का स्पर्श करने वाला ( अर्थ का वाचक ) मानते हैं तब तो सर्वथा सभी शब्द अर्थ को कहते ही नहीं ऐसा आपका सिद्धांत विरुद्ध पड़ता है । स्वपक्ष की सत्यता और विपक्ष की असत्यता का प्रदर्शन कराने के लिये शास्त्र को रचने वाले आपके बौद्ध ग्रन्थकार वस्तु को सर्वथा अनभिधेय ( अवाच्य ) रूप मानने की प्रतिज्ञा करते हैं सो यह ग्रन्थकार उपेक्षणीयप्रज्ञ- उपेक्षा करने योग्य ज्ञान वाला अर्थात् मूर्ख है क्योंकि इधर तो सत्य असत्य की व्यवस्था शास्त्र से ( शब्द से ) होना मानकर शास्त्र रचता है और इधर वस्तु को शब्द द्वारा अनिभिधेय मानता है सो यह सर्वथा अनुचित है, क्योंकि सर्वथा अभिधेय रहित शब्द द्वारा शास्त्र का प्रणयन करना ही अशक्य है। बौद्ध ग्रन्थ प्रमाणवात्तिक में कहा है कि - हेतु वचन स्वयं अशक्त होकर शक्त स्वलक्षण का सूचक हुआ करता है अर्थात् स्वरूप से असमर्थ ऐसा हेतु वचन समर्थ रूप स्वलक्षण को (साध्य को) सिद्ध करता है, सो शब्द द्वारा की गयी तत्त्व सिद्धि को तो अंगीकार करना और अर्थ शब्द से वाच्य नहीं होता ऐसा कहना महाअाश्चर्यकारी है । बौद्ध-हेतुवचन वस्तु का ( स्वलक्षणभूत साध्य का ) सूचक इसलिये होता है कि उसकी उत्पत्ति वस्तुभूत धूमादि दर्शन के अन्वय से हुई है ? अर्थात् हेतु का वचन वास्तविक धूमादि को देखना रूप प्रतीति से उत्पन्न होता है अतः स्वलक्षणभूत साध्यार्थ को सिद्ध करता है ? जैन-तो यही बात हम जैनादि अक्षणिक वादी के पक्ष में हो सकती है अर्थात् जो शब्द सत्यार्थ प्रतीत होते हैं वे अर्थाभिधायक होते हैं ऐसा सिद्ध होता है । "हमारे वचन ही अर्थ दर्शन के अन्वय से हुए हैं पर वचन नहीं" "ऐसा कहो तो जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698