Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 616
________________ अपोहवादः ५७२ नन्वेवं दहनसम्बन्धाद्यथा स्फोटो दुःखं वा तथा दाहशब्दादपि किन्न स्यादर्थप्रतीतेरविशेषात् ? तन्न; अन्यकार्यत्वात्तस्य, न खलु दहनप्रतीतिकार्य स्फोटादि । किं तर्हि ? दहनदेहसम्बन्धविशेषकार्यम्, सुषुप्ताद्यवस्थायामप्रतीतावपि प्रग्नेस्तत्सम्बन्धविशेषात् स्फोटादेर्दर्शनात्, दूरस्थस्य चक्षुषा प्रतीतावप्यदर्शनात्, मन्त्रादिबलेन त्वगिन्द्रियेणापि प्रतीतावप्यदर्शनात् । तस्मादभिन्नेपि विषये सामग्रीभेदाद्विशदेतरप्रतिभासभेदोऽभ्युपगन्तव्यः । बौद्ध-दाह शब्द से कोई भी अर्थ लेते हैं इन विकल्पों से आप जैनों का क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? जैन-इतने प्रकार के पदार्थों के मध्य में जो पदार्थ आप बौद्धों को इष्ट होगा उस अर्थ द्वारा शब्द का अर्थवान्पना अर्थात् अर्थ को विषय कर सकना सिद्ध होने से शब्द अवास्तविक अर्थ को विषय करते हैं (अथवा शब्द अनर्थ को विषय करता है) ऐसी आपकी मान्यता गलत सिद्ध होती है । बौद्ध - जैसे अग्नि के सम्बन्ध से स्फोट या दुःख होता है वैसे अग्नि शब्द से भी स्फोट या दुःख क्यों नहीं होता ? क्योंकि अर्थ की प्रतीति तो समान ही है ? अर्थात् यदि इन्द्रिय ग्राह्य अर्थ और शब्द गोचर अर्थ एक ही है और शाब्दिक प्रतीति और इन्द्रियज प्रतीति समान है तो अग्नि शब्द से स्फोटादि क्यों नहीं होते ? जैन - ऐसा कहना उचित नहीं है, स्फोट आदि होना किसी अन्य का कार्य है, अग्नि की प्रतीति का कार्य स्फोटादि नहीं है, वह कार्य तो अग्नि और शरीर के सम्बन्ध विशेष के कारण होता है, यदि स्फोट अादि अग्नि की प्रतीति का कार्य होता तो सुप्त उन्मत्त आदि दशा में अग्नि के प्रतीति के नहीं रहते हुए भी उस अग्नि के सम्बन्ध विशेष से स्फोटादि होना कैसे दिखायी देता? दुर में स्थित पुरुष के चक्षु द्वारा अग्नि के प्रतीत होने पर भी स्फोटादि क्यों नहीं होते तथा मंत्रादि के बल से युक्त होने पर स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा प्रतीत होने पर भी स्फोटादि क्यों नहीं दिखाई देते ? अतः निश्चय होता है कि अग्नि के प्रतीति होने मात्र से स्फोट या दुःख नहीं होता अपितु अग्नि और शरीर के संयोग हो जाने से उक्त कार्य होता है इसलिये स्फोट आदि अग्नि प्रतीति का कार्य नहीं है। अतः बौद्धों को विषय के अभिन्न रहने पर भी सामग्री के भेद से विशद और अविशद रूप प्रतिभासों का भेद स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् विभिन्न सामग्री के कारण भिन्न भिन्न प्रतिभास होता है न कि विषयभेद के कारण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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