Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 598
________________ अपोहवादः ५५३ वासनाया एवासम्भवात् । तदसम्भवश्व तद्ध तोनिविषयप्रत्ययस्यायोगात् । नापि वाच्यापोहभेदनिमित्तः; तद्भेदस्य प्रागेव कृतोत्तरत्वात् । ननु प्रत्यक्षेणैव शब्दानां कारणभेदाद्विरुद्धधर्माध्यासाच्च भेदः प्रसिद्ध एव; इत्यप्यसाम्प्रतम्: यतो वाचकं शब्दमङ्गीकृत्यैवमुच्यते । न च श्रोत्रज्ञानप्रतिभासिस्वलक्षणात्मा शब्दो वाचकः; संकेतकालानुभूतस्य व्यवहारकालेऽचिरनिरुद्धत्वात् इति न स्वलक्षणस्य वाचकत्वं भवदभिप्रायेण । तदुक्तम् "नार्थशब्दविशेषेण वाच्य वाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वात्सामान्यं तूपदिश्यते ॥१॥" [ ] रूप होने से वासना रूप ज्ञान का विषय नहीं हो सकता अर्थात् बौद्धागतानुसार जो ज्ञान का कारण है वही उसका विषय ( ज्ञेय ) माना गया है, यहां वासना ज्ञान अवस्तु रूप अपोह में होना कह रहे सो यह कथन निविषय में ज्ञान का प्रयोग होने से प्रयुक्त है । वाच्यों के अपोहों में भेद होने के कारण वाचक शब्दों के अपोहों में परस्पर में भेद होता है ऐसा दूसरा पक्ष भी गलत है क्योंकि वाचक शब्दों के अपोहों में भेद होना अशक्य है ऐसा पहले ही उत्तर दे पाये हैं। बौद्ध-तालु आदि कारणों के भेद होने से तथा विरुद्ध धर्माध्यास अर्थात् भिन्न धर्मों के ग्रहण होने से शब्दों में भेद होना सुप्रसिद्ध ही है ? अर्थात् यह शब्द तालु से हुआ है और यह कंठ से इत्यादि रूप से शब्दों में भेद देखा जाता है अतः वाचक शब्दों का पारस्परिक भेद तो इन कारण भेदों से ही होना स्वीकार करना चाहिये, ऐसा करने से उपर्युक्त दोष नहीं आते ? जैन – यह कथन असत् है। गो आदि शब्द परमार्थभूत गो अर्थ के वाचक होते हैं ऐसा स्वीकार करने पर ही इस तरह कह सकते हैं किन्तु आपके यहां कर्ण ज्ञान में प्रतिभासित होने वाला स्वलक्षण रूप शब्द अर्थ का वाचक हो ही नहीं सकता क्योंकि संकेत काल में अनुभूत किया गया शब्द व्यवहार काल में विनष्ट हो चुकता है इसका भी कारण यह है कि स्वलक्षण रूप पदार्थ सर्वथा क्षणिक एवं निरंश माने हैं ? इसलिये आपके अभिप्रायानुसार स्वलक्षण रूप शब्द में वाचकपना होना अशक्य है । कहा भी है- अर्थ विशेष और शब्द विशेष से वाच्य वाचकता होना मान नहीं सकते क्योंकि ये दोनों ही व्यवहार काल में अदृष्ट हो जाते हैं अर्थात् संकेत कालीन शब्दार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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