Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 604
________________ अपोहवादः ५५६ ननु चाकृतसमया ध्वनयोर्थाभिधायकाः, कृतसमया वा ? प्रथमपक्षेतिप्रसंगः । द्वितीयपक्षे तु क्व तेषां संकेतः-स्वलक्षणे, जातो वा, तद्योगे वा, जातिमत्यर्थे वा, बुद्धयाकारे वा प्रकारान्तरासम्भवात् ? न तावत्स्वलक्षणे; समयो हि व्यवहाराथं क्रियमाणःसंकेतव्यवहारकालव्यापके वस्तनि युक्तो नान्यत्र । न च स्वलक्षणस्य संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वम्; शाबलेयादिव्यक्तिविशेषाणां देशादिभेदेन परस्परतोऽत्यन्तव्यावृत्ततयाऽन्वयाभावात्, तत्रानन्त्येन संकेतासम्भवाच्च । विकल्पबुद्धावध्याहृत्य तेषु संकेताभ्युपगमे विकल्पसमारोपितार्थविषय एव शब्दसंकेतः, न परमार्थवस्तुविषयः स्यात् । स्थिरैकरूपत्वाद्धिमाचलादिभावानां संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वेन समयसम्भवोप्यसम्भाव्यः; तेषामप्यनेकाणुप्रचयस्वभावानां प्रादुर्भावानन्तरमेवापवर्णितया तदसम्भवात् । बौद्ध-जिनमें संकेत नहीं किया है ऐसे शब्द अर्थों के अभिधायक होते हैं अथवा संकेत वाले शब्द अर्थाभिधायक होते हैं ? प्रथम पक्ष में अति प्रसंग दोष पाता है। द्वितीय पक्ष माने तो प्रश्न होता है कि उन शब्दों का संकेत किसमें होता है स्वलक्षण में गोत्वादि सामान्यभूत जाति में, अथवा उस जाति से युक्त गो आदि पदार्थ में, या गो आदि पदार्थाकार हुई बुद्धि में ? इनको छोड़कर अन्य प्रकार में तो संकेत हो नहीं सकता । स्वलक्षण में शब्दों का संकेत होता है ऐसा प्रथम विकल्प ठीक नहीं, क्योंकि संकेत व्यवहार के लिये किया जाता है ( लौकिक एवं पारमाथिक प्रयोजन सिद्धि के लिये ) अत: वह संकेतकाल और व्यवहारकाल इन दोनों कालों में व्यापक रूप से रहने वाली वस्तु में ही करना युक्त है न कि क्षणिक स्वलक्षण में। इसका कारण यह कि स्वलक्षण को क्षणिक निरंश एवं निरन्वय माना है अतः वह संकेत काल से लेकर व्यवहार काल तक व्यापक रूप से रह नहीं सकता, तथा स्वलक्षण विशेष रूप है अतः शाबलेय, बाहुलेय, खंडी मुडी अादि स्वलक्षणभूत गो विशेषों में देश भेद एवं स्वभावादि भेद पाये जाने से (पृथक् पृथक् स्थान में स्थित होना एवं वर्ण आकारादिका भेद होना) इनमें परखर में अत्यंत भिन्नता है इसलिये इनमें अन्वय का भी अभाव है, तथा अंनत संख्या प्रमाण हैं इस प्रकार के गो आदि विशेष पदार्थों में गो अादि शब्द द्वारा संकेत करना सर्वथा असम्भव है। अर्थात् जो गो शब्द है वह मुण्डी गो का वाचक है इत्यादि रूप अन्वय या संकेत गो विशेष में होना अशक्य है । विकल्प बुद्धि में आरोप करके उन शब्दोंमें संकेत किया जाता है ऐसा माने तो शब्दों का संकेत केवल विकल्प में आरोपित पदार्थों को विषय करता है परमार्थभूत पदार्थों को नहीं ऐसा सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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