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अपोहवादः त्वभावरूपतयाऽपोह्यत्वासम्भवात्, अभावानामभावाभावात्, वस्तुविषयत्वात्प्रतिषेधस्य । अपोह्यत्वेऽपोहानां वस्तुत्वमेव स्यात् । तस्मादश्वादौ गवादेरपोहो भवन सामान्यभूतस्यैव भवेदित्यपोह्यत्वाद्वस्तुत्वं सामान्यस्य । तदुक्तम्
"यदा चाऽशब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनामपोह्यता। तदापोह्य त सामान्यं तस्यापोहाच्च वस्तुता ॥१॥ नाऽपोह्यत्वमभावानामभावाऽभाववर्जनात् । व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात्सामान्य वस्तुनः ।।२।।"
[ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ६५-६६ ]
यावन्मात्र पदार्थों को आपने शब्द द्वारा अन्यापोह रूप माना है अतः वे अपोह के विषयभूत पदार्थ अभाव रूप स्थित होने के कारण व्यावर्तन करने के अयोग्य हैं, अभाव का अभाव तो होता नहीं, क्योंकि प्रतिषेध वस्तु विषयक हुअा करता है, यदि अपोहभूत पदार्थों के अपोह्यपना शक्य है तो वे वस्तु रूप ही सिद्ध होंगे। इसलिये अश्वादि में गो आदिका अपोह होता है तो उसका अर्थ यही है कि सामान्य का ही अपोह होता है, और यदि ऐसा है तो अपोह करने योग्य होने से सामान्य का वास्तविकपना प्रसिद्ध हो ही जाता है। जैसा कि कहा है-गो विशेष अर्थात् शाबलेयादि गो अशब्द वाच्य होने से अपोह्य योग्य नहीं है, अपोह्य योग्य सामान्य ही है, उसका अपोह करना शक्य होने से उसमें वस्तुपना सिद्ध है ।।१।। अभावों में अभाव न होने से उनके अपोह्यत्व भी नहीं बनता गो रूप अपोह से अन्य अश्वादि रूप अपोहांतर में अपोह करना इष्ट है तो गोत्व आदि सामान्य परमार्थभूत है ऐसा सिद्ध होता है । इस कारिकाद्वय से निश्चित होता है कि गोत्वादि सामान्यों को परमार्थभूत माने बिना वे अन्यापोह के विषय नहीं हो सकते।
भावार्थ-बौद्ध के यहां विशेष को अवाच्य माना जाता है अतः शाबलेय आदि गो विशेष शब्द द्वारा कहे नहीं जा सकते । शब्द द्वारा केवल सामान्य वाच्य होता है, सो इस पर प्राचार्य कह रहे हैं कि यदि आप सामान्य को परमार्थभूत मानते हैं तो वे शब्द द्वारा वाच्य हो सकते हैं किन्तु आपने ऐसा स्वीकार नहीं किया, बड़ा आश्चर्य है कि गो विशेष तो अवाच्य है और गोत्व सामान्य काल्पनिक, ऐसी दशा में गो शब्द किस अर्थ को कहेगा ? बौद्ध गो आदि शब्द का अर्थ अन्य का अपोह मानते हैं किन्तु जिसका अपोह करना है वह अन्य यदि विशेष रूप है तो शब्द के गम्य नहीं और यदि
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