________________
अपोहवादः
५४६ चाश्वादिष्वभावानुरक्ता शाब्दी बुद्धिरुपजायते । किन्तहि ? भावाकाराध्यबसायिनी । तथापि विशेषणत्वे सर्वं सर्वस्य विशेषणं स्यात् । अनुरागे बा अभावरूपेण वस्तुनः प्रतोतेर्वस्तुत्वमेव न स्यात्, भावाभावयोविरोधात् । शब्देनाऽगम्यमानत्वाच्चाऽसाधारणवस्तुनो न व्यावृत्या विशिष्टत्वं प्रत्येतु शक्यम् । उक्तञ्च
"न चासाधारणं वस्तु गम्यतेपोहबत्तया। कथं वा परिकल्प्येत सम्बन्धो वस्त्ववस्तुनोः ।।१।। स्वरूपसत्त्वमात्रेण न स्यात्किञ्चिद्विशेषणम् । स्वबुद्धया रज्यते येन विशेष्यं तद्विशेषणम् ।।२।। न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो जायतेपोहभासनम् । विशेष्ये बुद्धिरिष्टेह न चाज्ञातविशेषणा ।।३।। न चान्यरूपमन्यादृक् कुर्याज्ज्ञानं विशेषणम् । कथं वाऽन्यादृशे ज्ञाने तदुच्येत विशेषणम् ।।४।।
माना जायगा तब तो वस्तु की अभावरूप प्रतीति आ जाने से उसमें वस्तुपना ही नहीं रहेगा, क्योंकि भाव और प्रभाव का ( वस्तु और अवस्तु का ) एकत्र रहना विरुद्ध है। अर्थात् एक वही वस्तु और अवस्तु नहीं होती । दूसरी बात यह है कि आप बौद्ध के यहां पर असाधारण वस्तु को ( स्वलक्षण को ) शब्द द्वारा अगम्य ( अवाच्य ) माना है अत: उसका अपोह से विशिष्टपना जानना शक्य नहीं है। मीमांसा श्लोक वात्तिक ग्रन्थ में भी कहा है कि--
असाधारण वस्तु ( स्वलक्षण ) अपोह से विशिष्ट प्रतीत नहीं हो सकती तथा स्वलक्षणरूप वस्तु और अपोह रूप अवस्तु का सम्बन्ध भी किस प्रकार परिकल्पित हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥१॥ बिना सम्बन्ध के अस्तित्व मात्र से कोई किसी का विशेषरण नहीं बनता है, क्योंकि जिसके द्वारा अपने ज्ञान से विशेष्य को अनुरक्त किया जाता है वह विशेषण कहलाता हैं ।।२।। अश्वादि शब्दों से अपोह का प्रतिभास नहीं होता अतः उनकी व्यावृत्तिरूप अपोह को विशेषण नहीं बना सकते और जो ज्ञान विशेषण के प्रतिभास से रहित है वह विशेष्य में प्रवृत्ति करा नहीं सकता ॥३।। विशेषण अन्य रूप हो और उसके द्वारा विशेष्य में किसी अन्य विशेषण रूप ज्ञान उत्पन्न कराया जाय ऐसा होना तो अशक्य है, यदि अन्य रूप ज्ञान उत्पन्न कराता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org